'जीवन की हकीकत' समझ आयी, 'बन्द कमरे में रोया',
'ठगिनी बयार' क्या बही, 'यादों में गाँव' उभर आया।
ये 'दो दिन का बस मेला है', जो 'अपनी विरासत' झेला है,
'मेरी कलम भी थर्राई है', जब पाया खुद को अकेला है।
हर रोज 'प्रवासी मजदूरों का पलायन' रोके नहीं रुका,
'याद आता मुझको मेरा गाँव' यह सोच मन नहीं थका।
'यह कैसी विडम्बना है' जो अब दहेज़ है अभिशाप यहाँ,
यह नहीं चलेगा रीति बदल दो तब सुधरेगा समाज यहाँ।
फिर से 'देखो बसन्त आ रहा', शाख-शाख बौरायी है,
'संयमित जीवन' रहा है, तभी तो चहरे पर अरुणायी है।
'सोने का मृग' क्या दिखा, दौड़ते हुए जवानी बीत गयी,
जब 'घर की निशानी चली गयी' तब लगा उमर छली गयी।
'विक्टोरिया मेमोरियल' से 'पाखण्डी बाबा' तक के ढोल,
'काश ! कोई लौट आये अपना' जो बोले प्रीति के बोल।
पीहर हो या ससुराल हर कहीं बस यादें ही यादें हैं,
'बम बम बोले रे काँवरिया' कुछ कसमें है कुछ वादे हैं।
'बेटी की बिदाई' की बेला, सचमुच कितनी दुखदायी है,
कहने को बेटी अपनी है, पर होती सदा परायी है।
सुख से भर पेट मिले रोटी, यह आज सभी का सपना है,
पर होता ऐसा कहाँ कभी, यह तो बस महज कल्पना है।
'दीवार पर टँगा हुआ चित्र', लगता है जैसे बोल रहा,
'मेरा मन आज उदास हो गया', 'ख्वाब अधूरा' डोल रहा।
हाँ 'मायाजाल महानगरों का'. किसको नहीं लुभाता है,
अब भी गाँवों से सपने ले कर, आँखों में आ जाता है।
'देखो कैसा भूकम्प आ गया'. यह प्रकृति का है प्रकोप,
क्यों आज आदमी अपने हाथों, लाखों झंझट रहा है रोप।
'कुछ यादें कुछ अहसास', साथ में 'परोपकार' निशानी है,
'मोबाइल व्यसन बना' ऐसा, ये सबसे दुखद कहानी है।
'चाँदनी संग लौट आना' तुम, 'जीवन बेराग' हुआ अपना,
'मेरे अधरों पर गीत नहीं', 'हाथों से सजाऊँ' जो सपन।
'एक बार लौट आओ' देखो, तनहा मन कैसे सोया था,
कैसे बतलाऊँ प्रिय ! 'बंद कमरे में कितना रोया था'।
'ढलते मौसम के साथ'. तुम्हारा मेरा 'वह खुशनुमा सफर',
यदि साथ "और तुम आ जाओ," हो जाये ज्यादा सुखकर।
कभी-कभी लगता कि, 'तुम तो आज भी मेरे संग हो',
'चलो भीगते हैं' सुमुखि ! वर्षात के मौसम में संग हो।
s /d
रचियता डॉ० श्री मदनलाल वर्मा "क्रान्त "
सम्पर्क :
E -55 बीटावन
ग्रेटर नोयडा 201310
मोबाइल : 98118 51477
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