Wednesday 23 June 2021

                                                        जीवन परिचय 


नाम             : भागीरथ कांकाणी 

जन्म स्थान    : बलदू  (लाडनू ) नागौर,राजस्थान 

शिक्षा           : वाणिज्य में स्नातक 

सम्प्रति         :व्यवसाय  ( आयात- निर्यात )

प्रकाशित      : संकट मोचन नाम तिहारो 
पुस्तकें           कुमकुम के छींटे 
                     एक नया सफर 
                     कुछ अनकही..... 

अभिरुचियाँ  : देश-विदेश भृमण,समाज सेवा, 
                      फोटोग्राफी,लेखन। 

सम्मान        : राजस्थान सरकार द्वारा  
                    भामाशाह सम्मान से सम्मानित।  
                    इंडिया इंटरनेशनल फ्रेंडशिप 
                    सोसाइटी द्वारा सम्मानित। 

सम्पर्क         :M - 98300 65061
                    :E mail - kankanibp@gmail.com
                    :https://santamsukhaya.blogspot.com
                    
प्रतिष्ठान :  इंडिया ग्लेजेज़ लिमिटेड 
                6 लॉयंस रेन्ज, 4 तल्ला 
                कोलकाता - 700 001 
                         
                अस. बी, जिरकॉन ( प्रा.) लिमिटेड 
                प्लॉट नम्बर - 306 , सेक्टर -9 
                फरीदाबाद (हरियाणा ) 121006 

               


Wednesday 16 June 2021

मेरा प्रेम-पत्र

मैं चाहता हूँ तुम्हें
एक बार फिर से लिखूँ 
खुशबु और प्यार भरा
एक प्रेम-पत्र

तुम गली के मोड़ पर
फिर से खड़ी हो कर 
करो इन्तजार डाकिये का
लेने मेरा प्रेम-पत्र

बंद कर दरवाजा
फिर पढ़ो चुपके-चुपके
मेरा प्रेम-पत्र

तकिये पर सिर रख
चौंको किसी आहट पर
पढ़ते हए मेरा प्रेम-पत्र

झूमते तन-मन से
बार-बार पढ़ो 
तुम मेरा प्रेम-पत्र

मेरे प्यार का
तुम्हें एक बार फिर से
अहसास दिलाएगा
मेरा यह प्रेम-पत्र।

तुम हो मेरे जीवन साथी

तुम हो मेरे जीवन साथी 
साथ - साथ चलते रहना,
अगर कहीं मैं थक जाऊं 
हाथ पकड़ बढ़ते रहना। 

मैं हूँ नादां समझ नहीं है 
तुम  थोड़ा  समझा देना, 
अगर कहीं मैं भूल करूँ 
तुम अनदेखी कर देना। 

जैसे चन्दन में सुगंध बसे 
मेरे जीवन में तुम बसना, 
कभी न छूटे साथ हमारा 
स्वप्न सलोने बुनते रहना। 

एक ही मंजिल है दोनों की 
मुश्किल में हिम्मत रखना,
प्यार भरा रिश्ता है अपना
जीवन भर साथ निभा देना। 


एक नया अर्थ

सूरज तो आज भी निकला है
फूल आज भी खिलें हैं
हवा आज भी चली है
मगर आज तुम नहीं हो।

यह सूरज की लालिमा
यह फूलों का खिलना
यह हवा का चलना
मेरे लिए आज एक
नया अर्थ लेकर आया है।

कल की सुबह
और आज की सुबह में
कितना अंतर है
यह मेरा मन समझता है।


हम दोनों का प्रेम

तुम्हारे और मेरे बीच 
पचास साल से 
प्रेम और विश्वास का 
सम्बन्ध है। 

तुम बोलते हो तो
मैं उसे सुनती हूँ,
तुम्हारी आवाज की चुप्पी
से भी मैं समझ जाती हूँ। 

कभी-कभी भ्रमवस
पूछ भी लेती हूँ कि
क्या तुमने मुझे कुछ कहा ?
तुम सुन कर हौले से
मुस्करा देते हो। 

तुम्हारा चुप रह कर
मुस्कराना भी मुझे
बहुत कुछ कह जाता है। 

तुम्हारा संवादहीन होना भी
मेरे लिए एक अर्थ रखता है। 

वह है तुम्हारा प्रेम
हमारा प्रेम
हम दोनों का प्रेम।


Monday 14 June 2021

मातृभाषा कराह रही है

आज के बच्चे जो 
पढ़-लिख गए हैं 
अंग्रेजी बोलने में ही 
गर्व का अनुभव करते हैं।   

अपनी मातृभाषा में 
बात करने में अब 
उनकी जबान ऐंठती हैं।  

ठंडे ज़ायक़े को 
दिमाग में घोलते हुये 
विदेशी भाषा बोलने में ही 
अपनी शान समझते हैं।  

भूले से भी नहीं दिखती 
उन्हें अपनी जमीन  
जिसकी जड़ों को लगातार 
काट रहे हैं। 

आत्मप्रदर्शन और   
आत्मप्रशंषा के शिकार 
खुदगर्जों के पार्श्व में बैठी 
मातृभाषा आज कराह रही है। 




कागज की कश्ती

अब नहीं रहा
बच्चों का बचपन
हमारे जमाने जैसा  

अब डेढ़ बरस में
प्लेग्रुप और ढाई में तो
स्कूल चले जाते हैं बच्चे। 

बँट चुका है
उनका बचपन अब
स्कूल और क्रैच में। 

सुबह जाते हैं स्कूल
शाम ढले मम्मी संग
आते हैं क्रैच से। 

दोस्तों की शैतानियाँ 
मेडम की बातें
अपनी हरकतें अब वो 
नहीं कहते मम्मी से। 

अब उनका बचपन
न तो मुस्कराता और
नहीं इठलाता है

खो गई है उनकी
मासूमियत भरी मस्ती
अब पानी में नहीं तैरती
उनकी कागज की कश्ती।

 

फिर भी मैं चलता रहा


उसकी शरारतें याद कर, रात भर जागता रहा। 
उसकी हँसी ओ दिल्लगी से, मन बहलाता रहा।। 

मैं तो अब लम्बी जिंदगी नहीं, मौत मांग रहा। 
मौत के बाद, उसके दीदार की हसरत मांग रहा।  

मैं उससे लड़ता रहा, लड़के हारता भी रहा। 
मगर हार करके भी, उसी से फिर लड़ता रहा।।

आँखें बंद किये मैं रात भर, ख्वाब देखता रहा। 
ख़्वाब में मिलने आएगी, यही आश लगाए रहा।।   

मुड़ मुड़ जो देखती थी, उसका संग नहीं रहा। 
मैं भी उसे भूलते-भुलाते, वक्त को काटते रहा।।   
           
दिल में यादें संजोए, आँखों में पानी भरता रहा। 
न मंजिल न हमसफ़र, फिर भी मैं चलता रहा।। 


ok

Thursday 10 June 2021

        भूमिका 

                                              "सिसकियों पर महीन नक्काशी
                                                आंसुओं पर लगाम कविता है"

                                     साहित्य की सर्वाधिक लोकप्रिय विद्या है कविता। मार्मिकता, प्रभविष्णुता तथा कम शब्दों में बड़ी बात कहने की अद्भुत क्षमता के कारण पाठकों के बीच उसने अलग स्थान बनाया है। भावाकुल क्षणों में अनुभूति जब अपनी अभिव्यक्ति के लिए मार्ग तलाशने लगती है, कविता का रूप - आकर स्वतः निर्मित होने लगता है। कह सकते हैं कि कल्पना और विचार के तालमेल से सृजन के विशेष क्षणों में एक साँचा - सा तैयार होता है, जो रचनाकार की क्षमता, योग्यता, पात्रता एवं प्रतिभा के आधार पर अपनी जमीन का निर्माण करता है। कवि देवेन्द्र आर्य की चार पंक्तियाँ याद आ रही हैं ---

                                    दिल का बोला, दिमाग का लिक्खा, रौशनी का कलाम कविता है 
                                     सिसकियों पर महीन नक्काशी,  आंसुओं पर लगाम कविता है" । 
                                कुछ बहुत व्यक्तिगत सी बातों का, खास कुछ इंतजाम कविता है,
                                      जितने भी शब्द है जमाने में, उनका अंतिम मुकाम कविता है।

                                   कविता के प्रति उपर्यंकित विचारों - भावों के आलोक में श्री भागीरथ कांकाणी की पाण्डुलिपि "स्मृति मेघ"  के भावोदगारों से गुजरने का सुयोग मुझे सुलभ हुआ सम्मान्य बन्धु  श्री भागीरथ चाण्डक, श्री महावीर बजाज तथा श्री बंशीधर शर्मा के माध्यम से। 

                                "स्मृति मेघ" की अभिव्यक्त्तियाँ प्रिया की वे यादें हैं, जो मेघ की तरह उमड़-घुमड़ कर रचनाकार को उद्वेलित करती रहती हैं। पत्नी के वियोग की वेदना जब संवेदना से सम्पृक्त होकर चेतना को झकझोरती है,  भावों का आवेग प्रबल हो जाता है। उस विचार- प्रवाह को कलमबद्ध करने का रचनात्मक प्रयास किया है श्री भागीरथ कांकाणी ने।  इसी प्रक्रिया को विज्ञजनों ने कविता के निर्माण की पीठिका माना है। याद आ रहे हैं प्रख्यात कवी केदारनाथ अग्रवाल। उनकी स्वीकारोक्ति है ---

                                   क्यों आते हैं भाव, न जिनका मैं अधिकारी,
                                   क्यों आते हैं शब्द, न जिनका मैं व्यवहारी। 
                                   कविता   यों  ही   बन  जाती है बिना बनाए,  
                                   क्योंकि ह्रदय में तड़प रही है याद तुम्हारी।।  

                           स्वयं कांकाणी जी कहते भी हैं --"कविताओं के संग, यादों का चिराग जलता रहा /  आँखें बरसती रहीं,कविताओं में दर्द रिसता रहा" । परन्तु प्रिया की याद केवल अश्रुपात नहीं कराती, सुकून का अहसास भी कराती है। "सुकून भरी तुम्हारी यादे" में रचनाकार कह उठता है ---

                                  "मेरी खुशियों में तुम हो / मेरी मंजिल में तुम हो ।। 
                                   मेरी  जिन्दगी  में तुम हो, मेरी बंदगी में तुम हो  ।।"   

                         यादों के गलियारे में विचरते - रमते हुए कवी अपनी भार्या के साथ व्यतीत 50 वर्षों के स्वर्णिम सान्निध्य का रोमंथन (जुगाळी ) करता है। अतीत के व्यतीत सुखद क्षणों का आनंद, वियोग की वेदना को द्विगुणित क्र देता है; और तब कागज़ पर उतरने लगाती है पीड़ापुरीत पक्तियाँ।  'एक कहानी का अंत' रचना में उसकी सीधी सपाट उक्ति है ---

                            "तुम थी तो जिन्दगी / भोर की लालिमा लगाती थी  /
                             लेकिन अब तो / साँझ की कालिमा लगाती है / 
                            अब तो / घुटन, तड़पन, उदासी. अकेलापन /
                             यही रह गया है जीवन में। "

                         भावों को प्रकट करने की यह सहजता कांकाणी जी की विशेषता है। अपनी अनुभूति को बिना रंगे -चुने, सीधे - सीधे व्यक्त कर देने की यह ईमानदारी प्रभावित करती है। इसीलिए इन अभिव्यक्तियों में काव्यगत रस, अलंकार, छंद, उक्तिवैचित्र्य आदि की तलाश करने वाले सुधीजनों को निराशा ही हाथ लगेगी। परन्तु यह भी सच है कि इन रचनाओं में अभिव्यक्ति की सहजता और संवेदना की मार्मिकता का अनुभव सहृदय पाठकों को बार - बार होगा।  

                      आदि कवि बाल्मीकि की संवेदना, क्रौच - बध की पीड़ा से उत्पन शोक को श्लोक में रूपान्तरित करने में समर्थ होती है।  इसे ही प्रख्यात आधुनिक कवि सुमित्रानंदन पंत इस रूप में अभिव्यक्त क्र अमर पंक्तियों का सृजन करते हैं ---
                      'वियोगी होगा पहला कवि , आह से उपजा होगा गान। 
                उमड़कर आँखों से चुपचाप , बही होगी कविता अनजान।।' 

                     जिस प्रिया को कांकाणी जीने 'कविता का संगीत' और 'कविता का छन्द' मानकर सम्मानित किया हो, उसके न रहने का गम उसे सालता तो रहता है परन्तु वह उससे उबर कर जिस भावलोक में पहुंचता है, उसकी बानगी इन पंक्त्तियों में ध्यातव्य   है ---

           "मैं चाहता हूँ / तुम्हारी यादों को / कविता और गीतों के माध्यम से सहेजकर रख लूँ। 
    ताकि जब तुम मुझे / पराजगत में / किसी मोड़ पर मिलो /  मैं इनकी बंदनवार सजा सकूँ। "

प्रेम की पराकाष्ठा की प्रतीति कराने वाले इन स्मृति - बिंबों के अतिरिक्त इस संग्रह की कुछ अन्य कविताएँ भी हृदयस्पर्शी हैं। गाँव पर केन्द्रित कविताएँ हो या प्रकृति - प्रेम से जुड़ी अभिव्यक्तियाँ, माटी के साथ रचनाकार के लगाव को रेखांकित करती हैं। घर, परिवार,समाज केसाथ महानगरीय जीवन की विडंबनीय स्थितियाँ कांकाणी जी की पैनी नजर से अछूती नहीं रह पाती।  उन पर सकारात्मक टिप्पणी करते हुए जो रचनाएँ लिखी गई हैं, वे नई पीढ़ी के लिए मननीय हैं। "कोरोना वायरस" तथा "मजदूरों के पलायन" पर उनकी कविताएँ, समसामयिकता से  साक्षात्कार  कराती है।  " मैं कविता ही लिखता रहूँ " शीर्षक रचना में कविता की महिमा का बखान कांकाणी जी के शब्दों में --


                              "तन्हाई के दिनों में हमसफ़र का काम कविता करती है,
                                   दुःखों केसागर में पतवार का काम कविता करती है। 
                        डगमगाते कदमों को सहारा देने का काम कविता करती है,
                                  बहते आँसुओं को पोंछने का काम कविता करती है। 
                                  निराशा की धुंध में आशा का संचार कविता करती है,
                                          सोए हुए को जगाने का काम कविता करती है"। 

                            कहने की आवश्यकता नहीं कि अपने इसी वैशिष्ट्य के कारण कविता सुधीजनों का कंठहार है। इस रचना के अंत में कवि अपनी इच्छा व्यक्त करते हुए कहता है ---- "मैं चाहता हूँ / जीवनके अवसान तक  / कविता लिखता रहूं।"
 
                        कवि की यह आकांक्षा फलीभूत हो, इस कामना के साथ मैं इस कृति का स्वागत करता हूँ।  साथ ही यह शुभेच्छा भी व्यक्त करता हूँ कि सह्रदय पाठक इन रचनाओं का स्वागत करेंगे। 


                                                                                                                     s /d 

                                                                                                         ( डा० प्रेमशंकर त्रिपाठी )
                                                                                                                  अध्यक्ष 
                                                                                                बड़ाबजार कुमारसभा पुस्तकालय 
                                                                                                              कोलकाता। 

संपर्क :
आशीर्वाद  अपार्टमेण्ट्स 
CA - 5 / 10 देशबंधु नगर , बागुईहाटी 
कोलकाता  - 700 059 
मोबाइल न० : 98306 13313 


ok





















Saturday 5 June 2021

प्रकाशक :
लेखक 
इंडिया ग्लेजेज़ लिमिटेड 
6 लॉयन्स रेंज, 4 तल्ला  
सूट नo  3 और 4 
कोलकाता -700 001 


दूरभाष :  ( 033 ) 40628366 
मोबाईल : 098300 65061 
E -mail : kankanibp@gmail. com 
Website : smritimegh.blogspot.com


(C) : भागीरथ कांकाणी 

ISBN No. : 978 -93 -5473 004 -7 


प्रथम संस्करण : 16 फरवरी, 2022 

मूल्य : 300 रु.

मुद्रक :

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मोबाईल :
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Smriti Megh   : By Bhagirath Kankani, Price Rs. 300/-





                            मेरी छोटी बहन यशोदा                
                                            और 
                               छोटे भाई बृजमोहन की
                                          याद में 
                                                        जिनका खिलता बचपन 
                              असमय ही काल कलवित हो गया। 

OK