Tuesday 30 March 2021

शुभानुशंसा

माताजी थी भंवरी देवी,
पिताजी सेठ पुसराज। 
सोलह फ़रवरी  १९४७, 
घर में जन्में युवराज।।

नामकरण उनका हुवा,
भागीरथ प्रसाद। 
जैसी वंश -परम्परा,
वैसी ही मर्याद।। 

बीस मई १९६४ को,
जब हुआ विवाह। 
सुशीला के स्वजन सभी, 
कह उठे वाह ! वाह !

अगरतला रह कर किया,
पटसन का व्यापार।
तिलहन का धन्धा किया,
लीचीनगर बिहार ।।  

हरियाणा में शुरू किया,
सेरामिक्स का काम। 
कोलकाता में आढ़ती,
बने कमाया नाम ।। 

बड़े श्यामसुंदर सुवन 
दुजे राजकुमार। 
नीलकमल थे तीसरे,
चौथे मनीषकुमार। 

बहुऍं क्रमशः शशिकला,
रश्मि व पूनम और।  
चौथी राजश्री सुता, 
जैसी सब शिरमौर।। 

देकर के परिवार को,
हुई शुशीला मौन। 
घरवाली बिन गेह को,
भला सम्हाले कौन ।। 

अर्द्धागिनी-वियोग से,
मन में हाहाकार। 
ऐसा हुआ कि बह चले,
कविता-स्रोत अपार ।। 

संकट मोचन नाम तिहारो,
कुमकुम के छींटे। 
एक नया सफर के बाद,
कुछ अनकही भी लिखे ।। 

रचियता डॉ० श्री मदनलाल वर्मा "क्रान्त "
होलिकोपरान्त  दुलहन्डी  विकर्मी संवत २०७७ 

OK






Saturday 27 March 2021

भोग का चिंतन नहीं छोड़ सके

वेदियाँ सजाते रहे 
हवन करते रहे 
तिलक लगाते रहे 
भंडारा करते रहे 
मगर अंतस का 
परिवर्तन नहीं कर सके। 

तीर्थों में घूमते रहे 
श्रृंगार कराते रहे 
दर्शन करते रहे 
प्रसाद लेते रहे  
मगर जीवन से 
राग-द्वेष को नहीं छोड़ सके। 
 
व्याख्यान सुनते रहे 
जयकारा लगाते रहे 
माला फेरते रहे 
कीर्तन करते रहे 
मगर अहं का 
अवरोध नहीं हटा सके। 

मंदिरों में जाते रहे 
आरतियाँ करते रहे 
घंटियाँ बजाते रहे 
चरणामृत लेते रहे 
मगर भोग का 
चिंतन नहीं छोड़ सके।  



मोबाइल व्यसन बनता जा रहा है

 दिन भर मोबाइल पर बातें करना,
         फेस बुक पर तस्वीरें भेजते रहना, 
               वाट्सएप्प पर मैसेज आते रहना, 
                     जीवन इसी में सिमटता जा रहा है, 
                            मोबाइल व्यसन बनता जा रहा है। 

दिन भर अंगुलियाँ नचाते रहना, 
       नए पोस्ट फॉरवर्ड करते रहना, 
               लाइक्स -कमेंटस गिनते रहना, 
                     सोशियल साईट्स जकड़ रहा है, 
                         मोबाइल व्यसन बनता जा रहा है। 

 मोबाइल पर दोस्त बनाते रहना, 
        परिवार से सम्बन्ध टूटते रहना, 
                मिलना-जुलना कम होते रहना,
                      जीवन एकाकी बनता जा रहा है, 
                              मोबाइल व्यसन बनता जा रहा है। 

पब्जी, टिक-टोक में खेलते रहना,
         चैटिंग में समय नस्ट करते रहना,  
                वेब सीरीज का नशा बढ़ते रहना, 
                      नोमोफोबिया में जकड़ता जा रहा है, 
                              मोबाइल व्यसन बनता जा रहा है। 

रेडिएशन्स का खतरा बढ़ते रहना,  
       अनिद्रा और गर्दन अकड़ते रहना, 
                आँखों के रोगों का बढ़ते  रहना,
                      युवा वर्ग ज्यादा फंसता जा रहा है, 
                                मोबाइल व्यसन बनता जा रहा है। 




Saturday 6 March 2021

अपनी बात

मनुष्य संवेदनशील एवं चेतना सम्पन्न प्राणी है। इसका मन प्रकृति में प्रतिपल होने वाले सौम्य, मनोरम एवं विकराल परिवर्तनों से भी भाव ग्रहण करता है और अपने आस-पास होने वाले दु:ख-सुख, आशा-निराशा, प्रेम-घृणा, दया-क्रोध से भी चलायमान होता रहता है। मनुष्य की इसी प्रवृत्ति की प्रेरणा से ज्ञान एवं आनन्द के उस भण्डार का सृजन, संचय एवं संवर्द्धन होता रहा है जिसे साहित्य कहते हैं। उसी साहित्य का एक अंग कविता है। समें छन्द व अलंकार पर बल नहीं दिया है, केवल एक बात पर बल दिया गया है, वह अभिव्यक्ति की हृदयस्पर्शी प्रभावोत्पादकता, जिससे यथाभाव की गूढ़तम अनुभूति हो सके। 

जीवन में मिलना - बिछुड़ना तो चलता ही रहता है, लेकिन मौत के बाद किसी से फिर मिलने की उम्मीद नहीं रहती।मौत पर किसी का बस नहीं होता। जब भी कोई अपने साथी को खोता है, तो उसका जीवन रंगहीन हो जाता है। वह उस पल को कोसता है, जब उसने अपने साथी को खोया। वह   छटपटाता है कि काश एक मौका फिर मिल जाय और वो उसे वापिस ले आये। लेकिन मौत वो अंत है, जिसकी शुरुआत नहीं होती। जाने वाला चला जाता है, लेकिन जीवनपर्यन्त दुःख अपनों को दे जाता है। समय घावों को भर देता है, लेकिन दिल में बैठी वो टीस कभी नहीं भरती।  

मेरी सहधर्मिणी स्व.सुशीला कांकाणी के वियोग से, ह्रदय में उपजी पीड़ा से, मैंने  ''कुछ अनकही..... '' काव्य संग्रह को जन्म दिया था। इस संग्रह में कोई चमत्कारिक काव्य शिल्प, कल्पना की ऊँची उड़ान या जटिल शब्दावली न हो कर सहज, प्रवाहमयी और संवेदनाओं को गहराई तक स्पर्श करने वाली कविताएं मैंने लिखी थी। इस संग्रह को आप सभी का भरपूर प्यार व आशीर्वाद मिला तदर्थ मैं आप सभी का हृदय से आभार प्रकट करता हूँ। 

इस पुस्तक को पढ़ कर अनेक पाठक/ पाठिकाओं की प्रतिक्रियाएं मुझे मिली थी। मैं सभी को यहाँ उदघृत तो नहीं कर पा रहा हूँ, केवल एक प्रतिक्रिया मैं सन्दर्भ के रूप में दे रहा हूँ, -----"अंतिम पृष्ठ तक पहुँचते - पहुँचते कितनी ही बार अक्षर धुँधले से हुए। एक-एक गिलास पानी पीकर, हर कविता में रचे इस दर्द को बर्दास्त करने की कोशिश करने के साथ ही, मैं पुस्तक को पूरी पढ़ सकी।" पाठकों के इस तरह से लिखे भावों को पढ़ कर, मुझे लगा कि मेरा लिखना सार्थक रहा। कुछ कविताएँ पिछले संग्रह में संकलित होने से रह गई थी, वो कविताएँ मैं इस संग्रह में दे रहा हूँ। आशा करता हूँ, पाठकवृन्द पसंद करेंगे। 

मेरे बचपन का गाँव आज भी मेरी यादों में बसा है। खेतों की सुनहरे रंग की बालू, जहाँ पर लहराती है बाजरी और मोठ की फसलें। खेजड़ी और रोहिड़े के सुन्दर वृक्ष, जिन पर चहकती हैं रंग-बिरंगी चिड़ियाँ। मैं जीता रहा हूँ उसी स्वर्ग में। वह आज भी मेरी सबसे घनिष्ठ प्रिय जगह है। ''गांव शहर चला गया है", "अपनी विरासत", "याद आता मुझको मेरा गाँव", "गाँव का जीवन", "मेरी यादों में गाँव" आदि कविताएँ इसी सन्दर्भ में लिखी हुई है। 

शहरों में भीड़ है, लेकिन हर कोई वहाँ अकेला है। किसी के पास समय नहीं है। गाँव में भीड़ नहीं है, लेकिन सबके पास एक-दूजे की परवाह है, फिक्र है और सामाजिकता की भावना है। वहाँ शहरों की तंग गलियाँ नहीं, खेतों की मेड़ों पर प्रकृति का सहवास है। गाँव हमें भूखे नहीं मरने देगा, इसी विश्वास के साथ, कोरोना महामारी के दौरान हजारों कि० मी०  पैदल यात्रा कर प्रवासी मजदूर अपने गाँव लौटे थे।मेरी कुछ कविताएँ जैसे "प्रवासी मजदूरों का पलायन", "मेरी कलम भी थर्राई है" आदि कविताएँ आपको इसी विषय पर पढ़ने को मिलेगी।   

मेरा प्रकृति के प्रति प्रेम सदा से ही रहा है। पहाड़ों में घूमना, नदियों और झरनों के किनारे घंटों बैठना, मेरा शौक रहा है। नदियों में कल-कल की ध्वनि से बहता जल, प्रकृति की सुरभ्य एवं मनोरम वादियों की गोद, मन्द-मन्द गति से चलने वाली समीर, मुझे सदा आकर्षित करती हैं।  "कलात्मक सृजनता" को मैंने कानाताल ( उत्तराखण्ड  ) प्रवास के दौरान लिखा था। गंगा की लहरों पर संध्या की सुनहरी आभा का धीरे-धीरे नीलिमा में परिवर्तित होना, सूर्य के बिम्ब का डूबना, यह सब प्राकृतिक दृश्य देखना किस को अच्छा नहीं लगता ? मेरी कविता "मोहक स्वर्गाश्रम की छटाएँ "-  मैंने स्वर्गाश्रम के गंगा घाट पर  बैठ कर लिखी थी। 

मजदुर हमेशा से ही अभावों की जिंदगी से गुजरता आया है। कभी- कभी तो उसे पेट भर खाना भी नसीब नहीं होता। आजादी के इतने साल गुजर जाने के बाद भी, इस परिस्थिति में किसी  प्रकार का बदलाव नहीं आया है। उसके जीवन में आज भी सुख नाम की कोई चीज नहीं है। "सुख से भर पेट रोटी", "महानगरीय जीवन", "काश कोई लौट आये अपना" आदि कविताओं में मैंने अपने मन के दर्द को प्रकट किया है।  मैंने अलग- अलग वक्त में अलग-अलग विषयों पर कविताएँ लिखी है। "आया देख बसंत को", "बसंत आ रहा", "ठगनी बहने लगी बयार", आदि कवितायें बसंत ऋतु पर लिखी हुई हैं।  इसी प्रकार से कुछ कविताएँ बचपन पर लिखी हुई हैं, जैसे "कागज़ की कश्ती", "बच्चे खो रहे हैं अपना बचपन" आदिआदि।  

मेरा यह कविता संग्रह का चौथा पड़ाव है। रस, अलंकार, छंद आदि का सम्यक ज्ञान न होने के कारण, इनमें अनेक त्रुटियाँ रहना सम्भव है। मेरा यह काव्य ग्रंथ आपके मर्म-स्थल को कितना छू पायेगा, यह तो आप ही बताएँगे। पहले तीनो काव्य संग्रहों - "कुमकुम के छींटे", "एक नया सफर" और "कुछ अनकही ..... " को आप सभी का भरपूर प्यार व आशीर्वाद मिला। मैं आशा करता हूँ कि मेरे इस संग्रह को भी आपका स्नेह और आशीर्वाद पूर्व से अधिक ही प्राप्त होगा। 

इस अवसर पर मैं स्मरण करना चाहता हूँ अपनी स्नेहमयी माँ स्व० श्रीमती भंवरी देवी कांकाणी को, जिनका जीवन, संघर्ष का पर्याय रहा, जो मेरे संघर्ष की ऊर्जाश्रोत बनी एवं स्वo पिताजी श्री पुसराज जी कांकाणी को, जो आज इस संसार में न होकर भी, मेरे सृजन और मेरी यादों में सदा मेरे साथ रहे हैं। 

डॉ० मदनलाल वर्मा "क्रान्त " जी ने कविता के माध्यम से शुभानुशंसा लिख कर मेरा जो मान बढ़ाया है उसके लिए मैं उनका जितना भी आभार प्रकट करूँ वो कम ही होगा। कईं दिनों से स्लिप डिस्क की पीड़ा से परेशान रह कर भी उन्होंने सभी कविताओं को पढ़ कर उनमें रही व्याकरण की अशुद्धियों को ठीक किया। बड़े मनोयोग से पुस्तक को सजाया-सँवारा और समीक्षा गीत लिख कर मेरे इस काव्य-संकलन को गौरवान्वित किया। 

इस संग्रह की सारगर्भित, विद्वतापूर्ण व विस्तृत भूमिका हिंदी -साहित्य आकाश के उज्जवल नक्षत्र, ख्यातिलब्ध व समादृत कविता, लेख, ब्लॉग, निबन्ध व शोध लेखक डॉ 'श्री प्रेमशंकर त्रिपाठी ने लिख कर, पुस्तक को व मुझे जो गौरव प्रदान किया है, उसके लिए मैं उनका अतिशय आभारी हूँ।
 
मैं अपने परिवार के सभी सदस्यों का आभार व्यक्त करना चाहूँगा, जिन्होंने इसके लेखन का वातावरण मुझे दिया। अपने सभी सम्बन्धियों, मित्रों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना चाहूँगा, जो दूर रह कर भी मुझे लिखने के लिए प्रेरित करते रहें । मैं विजय पुस्तक भण्डार के श्री विजय प्रकाश जी अग्रवाल एवं राजा राय का हार्दिक कृतज्ञ हूँ, जिनकी इस पुस्तक को प्रकाशित करने में अहम् भूमिका रही। पुस्तक के कवर की रचना में श्री मनीष काँकाणी एवं श्रीमती पृथा आईच का विशेष सहयोग रहा।  

जल्द ही फिर मिलने की कामना के साथ --

                                                                                                                 भागीरथ कांकाणी 


ok 

भवसागर पार लगाओ

 प्रभु! करुणा बरसाओ
      आवागमन मिटे जीवन से
            अब ऐसी भक्ति जगाओ
                  भवसागर पार लगाओ।

प्रभु! ज्ञानसुधा बरसाओ
      मिथ्या मोह मिटे जीवन से
              अब ऐसी प्रीति जगाओ
                  भवसागर पार लगाओ।

प्रभु! दिव्यधार बहाओ
     कर्म के पाप कटे जीवन से
             अब ऐसी लगन लगाओ
                    भवसागर पार लगाओ।

प्रभु! प्रेमसुधा बरसाओ
     काम-क्रोध मिटे जीवन से
            अब ऐसी ज्योति जगाओ
                  भवसागर पार लगाओ।

प्रभु !शांतिसुधा बरसाओ
     लोभ-मोह मिटे जीवन से
            अब ऐसी कृपा बनाओ
                 भवसागर पार लगाओ।




मेरी अभिलाषा

                                                                      मैं बनाना चाहता हूँ   
इस धरा को वृन्दावन,
जहाँ कुंज-कुंज में हो
प्रभु के दर्शन। 

मैं लिखना चाहता हूँ
प्रभु की पवित्र कथा,
जिसे पढ़ कर जग की 
दूर हो व्यथा। 

मैं बनाना चाहता हूँ
प्रभु का सुन्दर चित्र,
जिसे देख कर सब की
आत्मा हो पवित्र। 

मैं बहाना चाहता हूँ
प्रेम की रसधार,
जिससे सबको मिले
आनंद की बयार। 

मैं जलाना चाहता हूँ
भक्ति-ज्ञान की चेतना,
जिसके प्रकाश में मिटे 
 सब की वेदना।

Friday 5 March 2021

कांटे बिछा कर नहीं

तुम अपना घर चाहे जीतनी रोशनी से सजाओ,
मगर किसी कोठरी का दीपक बुझा कर नहीं।

तुम अपने लिए चाहे जितनी ऐशगाह बनाओ,
  मगर किसी का आशियाना उजाड़ कर नहीं।

तुम अपने घर में चाहे जीतनी खुशियाँ मनाओ,
मगर किसी निर्धन की खुशियाँ छीन कर नहीं।

तुम अपने लिए चाहे  जितने पकवान बनाओ, 
 मगर किसी गरीब का निवाला छीन कर नहीं।

तुम अपने लिए चाहे जितने ख्वाब सजाओ,
मगर किसी की पीठ में छुरा भोंक कर नहीं।

तुम अपनी राह में चाहे जितने फूल बिछाओ,
  मगर किसी की राह में कांटे बिछा कर नहीं।


सावन के मेघा आए

 पुरवाई की पवन चली, अब वारिद आएंगे,   
        बिजली के संग गरजेंगे, अम्बर में छायेंगे,  
                 प्यास बुझेगी धरती की, अमृत बरसाएंगे, 
                            सावन के मेघा आए, बरसात लाएंगे। 

बागों में सावन के झूले, फिर से डालेंगे, 
          फूल खिलेंगे बागों में, पपीहारा गायेंगे, 
                  प्यास बुझेगी चातक की, मयूर नाचेंगे,  
                          सावन के मेघा आए, बरसात लाएंगे। 

इन्द्रधनुष के सातों रंग, अम्बर में छाएंगे, 
        चमचमाते जुगनू, रातों में  दीप जलाएंगे, 
                हल चलेंगे खेतों में, नव अंकुर निकलेंगे,
                           सावन के मेघा आए, बरसात लाएंगे। 

बच्चे नाचेंगे पानी में, किलकारी मारेंगे,
        टर्र - टर्राते मेंढक, पोखर में उछलेंगे, 
                  ताल-तलैया, बावड़ी, सब भर जाएंगे, 
                         सावन के मेघा आए, बरसात लाएंगे। 



फ़िर से बचपन लौटा लाए

 छोटी-छोटी बातें ही जब       
       मन में संशय जगा जाए
           आपस का विश्वास टूटे
                 रिश्ते-नाते मिट जाए।

धन का झूठा लालच जब
       मन में स्वार्थ जगा जाए
           आत्मीयता के बन्धन सारे
                  पल भर में बिखर जाए।

चंद कागज़ के टुकड़ों पर
      जीवन सुकून चला जाए
            खुशियाँ निकले जीवन से
                   भाईचारा बिखर जाए।

हो जाए जब अहम बड़ा
     कौन मन का भ्रम मिटाए
           भरोसे के लिबास में भी
               शक का दाग नजर आए।

बातों की जज्बाती चुप्पी
     मन में ढेरों संशय जगाए
          एकाकी जीवन रह जाए
               रिश्ते दिल से मिट जाए।

तुम भी वही हम भी वही
     फिर क्यों हम बैर बढ़ाए
         आओ मिल सब साथ रहें
            फ़िर से बचपन लौटा लाए।

मोहक स्वर्गाश्रम की छटाएं

कल-कल करती बहती गंगा,
सुन्दर  हिमगिरि की शाखाएँ, 

                        रजत सुमन लहरें बिखराएँ, 
                        तरल  तरंगित  नाद  सुनाएँ,  

निर्मल  गंगा की  ये   लहरें,
अमृत मय, पय पान कराएँ, 
                      
                       सुन्दर पक्षी कलरव करते, 
                       मन को मोहें  धवल धाराएँ,    

श्यामल बादल शिखर चूमते,
हरा  आँचल वसुधा  लहराएँ, 
                  
                  तपोभूमि ऋषि-मुनियों की,
                  गूँजें  यहाँ  पर वेद- ऋचाएँ,    

 नीलकंठ   महादेव  बिराजे,
 मोहक स्वर्गाश्रम की छटाएँ।                    


मैं कविता ही लिखता रहूँ

तन्हाई के दिनों में
हमसफ़र का काम
कविता करती है। 

ठंडी रातों में
गर्माहट का काम
कविता करती है। 

दुःखों के सागर में
पतवार का काम
कविता करती है। 

किसी की यादों को
गुदगुदाने का काम
कविता करती है। 

डगमगाते कदमों को
सहारा  देने का काम
कविता करती है। 

बहते आँसुओं को
पोंछने का काम
कविता करती है। 

निराशा की धुंध में
आशा का संचार
कविता करती है। 

सोते हुए को
जगाने का काम
कविता करती है। 

मैं चाहता हूँ
जीवन के अवसान तक
कविता लिखता रहूँ।

एक प्रयास तो करें

पहले घर छोटे थे
मकान कच्चे थे
कमाई सीमित थी
मगर दिल बड़े होते थे।

एक सब्जी से रोटी
खा लिया करते थे
कभी प्याज -चटनी से भी
काम चला लिया करते थे।

एक भाई कमा कर
चार भाई का घर भी 
चला लिया करता था।

सभी मस्त रहते थे
घर में हँसी - ख़ुशी 
और कहकहों की
फुलझड़ियाँ फूटती थी।

डिप्रेशन, उदासी और
ब्लडप्रेशर का कोई
नाम तक नहीं जानता था।

जीवन के मूल्य ऊँचे होते थे
दया और शान्ति का जीवन था
संतोष में ही सुख था।

आज पैसे की कमी नहीं
सुख-साधनों का आभाव नहीं
फिर भी सुख की नींद नहीं।

आज बेटा बाप से नहीं बोलता
भाई - भाई  से लड़ता
पति से पत्नी तलाक माँगती 
तनाव भरा जीवन जी रहें  हैं हम।

क्या हम इस दुःख की
नब्ज को पहचान कर
एक सुखी जीवन जीने का
प्रयास नहीं कर सकते ?


फिर क्यों अपनापन बांटा

बचपन कितना सुन्दर था, ढेरों प्यार जताते थे, 
बड़े हुए सब भूल गए, आपस में मन को बाँटा।

 अहम का औजार बनाया, भाई ने भाई को बाँटा, 
  नहीं किसी ने दर्द को बांटा, केवल सन्नाटा बाँटा।

हाथों से खाना सिखलाया,  बाँहों में झूला  झुलवाया,
उसी बाप की नजरों के संग, घर के चूल्हे को बाँटा

आँखें फेरी, लहजा बदला, घर की इज्जत को बाँटा, 
चौखट भी उदास हो गई, घर के आँगन  को बाँटा।

प्यार-मुहब्बत भाई जैसा, और कहाँ तुम पाओगे,
जन्नत है भाई का रिश्ता, उसको भी तुमने  बाँटा।  

                                                    कहना सुनना गृहस्थी में, चलता ही तो रहता है,                                                       छोटी -छोटी बातों पर, तुमने घर को क्यों बाँटा। 

धन-दौलत, जमीं-जायदाद, सभी छोड़ कर जाओगे,
साथ नहीं जाएगी कौड़ी, फिर क्यों अपनापन बाँटा


यही है संसार

पिता ने पौध को 
माली की तरह पाल पोस 
बड़ा किया था

कल्पना की थी
ठंडी छाँव और मीठे
फलों की

पेड़ों की
धमनियों में डाला था
अपना रक्त और जड़ों में
सींचा था अपना पसीना

लेकिन पेड़ों के
बड़े होते ही उनकी साँसों में
बहने लगी जमाने की हवा

अब पेड़ों की छाँव
वहाँ नहीं पड़ती जहाँ
पिता बैठता है 

मीठे फलों की जगह
पिता को चखना पड़ता है
कड़वे फलों का स्वाद

जब तब
लगती है मन को ठेस
सिमटते रहते हैं पिता

लाचार
हो जाता है बुढ़ापा
जवान बेटों के आगे

मन में दुःख होता है
पर कह नहीं सकते
किसी को

दीवार पर लगी पत्नी की 
तस्वीर देख कहते हैं  
पगली ! यही है संसार

उभर आता है
एक तारा आकाश में
सिहर उठता है बेबसी पर।



ठगिनी बयार

 बसंत आया मन हर्षाया,
        प्रकृति करे सोलह सिंगार,
               धानी चुनरिया ओढ़े धरती,
                         मद्धम-मद्धम बहे बयार।

बागों में अमुआ बौराया,
         झूम उठी सरसों कचनार,
                महुआ का भी तन गदराया,
                        लाया बसंत अनन्त बहार।

पायल थिरके चूनर लहरे,
        मचली फागुन की फगुआर,
                 कुहू कुहू बोले कोयलियाँ, 
                       बागों में छाई बसंत बहार।

तन गदराया मन अकुलाया,
         प्रकृति करे प्रणय मनुहार,
                  मधुकर चूमें कलियों को,
                           ठगिनी बहने लगी बयार।


मेरी यादों में गाँव

                                                                            गाँव में
घास-फूस वाली झोंपड़ियाँ
अब नजर नहीं आती। 

पनघट पर
बनी-ठनी पनिहारिनें 
अब नजर नहीं आती। 

सावन में 
 झूलों पर झूलती गौरियाँ  
अब नजर नहीं आती । 

चौपाल पर
हुक्के वाली बैठकें
अब नजर नहीं आती। 

 आँगन में
खन-खनाती चूड़ियाँ
अब नजर नहीं आती। 

बाखल में
पायल की छमछम 
अब सुनाई नहीं देती। 

साँझ में 
गायों का रम्भाना 
अब नजर नहीं आता। 

खेतों में
अलगोजे पर मूमल 
अब सुनाई नहीं देता। 









सुनहरी यादें

याद आती बचपन की बातें, 
प्यार भरी वो सुनहरी  यादें। 

बारिश के पानी में उछलना,
मेंढक को देख चीखें लगाना,   
कटी पतंगों के पीछे दौड़ना, 
दीपक की रौशनी में पढ़ना। 

थैला  लेकर स्कूल में  जाना, 
थूक  से  स्लेट साफ़  करना, 
नई किताबों पर गत्ते चढ़ाना,
पहाड़े बोल कर याद करना। 

दोस्तों के साथ कंचा खेलना, 
फूल पर से तितली पकड़ना,
अपने भाई को घोड़ा बनाना, 
दादी से रोज कहानी सुनना। 

होली में सबको रंग लगाना, 
सावन में  खूब  झूले झूलना, 
तीज पर मेला  देखने जाना, 
दिवाली पर पटाखें छोड़ना। 

याद आती बचपन की बातें,
प्यार भरी वो सुनहरी  यादें। 



                                                                       








  

गाँव का जीवन

                                                                    देश के महानगरों में 
रह कर भी मुझे 
अपने गाँव की 
याद आती है। 

आलीशान मकान में 
रह कर भी मुझे 
गाँव वाले घर की 
याद आती है। 

हवाई जहाजों में
सफर करके भी मुझे 
गांव वाली बैलगाड़ी की 
  याद आती है।  

पाँच सितारा होटलों में 
ठहर कर भी मुझे 
खेत वाले झोंपड़े की
याद आती है। 

स्वादिष्ट खाना 
खाकर भी मुझे 
माँ के हाथ की रोटी की 
याद आती है। 


                                                                         ऐशो आराम की  
                                                                   जिंदगी जी कर भी मुझे     

गाँव के जीवन की 
याद आती है।
ok 


दो दिन का बस मेला है

                                                                 शिव शंभू आओ धरती पर
हे जग के विषपायी,
एक वायरस ने दुनिया को
कर दिया धराशायी। 

सभी घरों में कैद हो गए
कैसी यह लाचारी, 
कैसा महासंक्रमण आया 
कैसी यह महामारी। 

रोज-रोज गिरती है लाशें
कौन करे अब गिनती,
यमराज भी थक गए हैं 
नहीं सुनते अब विनती। 

एक मास्क में सिमट गई
साँसें सारे जीवन की,
नहीं मिली दवा आज तक
    इस व्याधि के उपचार की। 

थम रहा जीवन पृथ्वी पर
चारों  तरफ  निराशा  है, 
जीवन  तो  लगता है जैसे
दो दिन का बस मेला है।

ok 

अपनी विरासत

                                                                         गाँवों में लोग 
आज भी देते हैं सूर्य को अर्ध्य 
निवेदित करते हैं तुलसी को जल

आज भी वहाँ 
पड़ते हैं सावन के झूले 
गूँजते हैं कजरी के बोल

औरतें रखती हैं  
चौथ का व्रत और करती हैं 
निर्जला एकादशी 

भोरा न भोर 
करती हैं  ठन्डे पानी से स्नान 
रखती व्रत कार्तिक मासी

दिवाली में 
गोबर से लिपती हैं घर
 माँडती है रंगोली

होली में 
बच्चे-बुड्ढे हो जाते हैं एक 
लगाते रंग, खेलते हैं होली

गाँव आज भी 
पुरखों की बनाई व्यवस्था 
पर गर्व करते हैं 

अपनी विरासत को 
पीढ़ी दर पीढ़ी संजोए 
रखते हैं। 




मेरी कलम भी थर्राई है

कोरोना वायरस
दुनियाँ में कोहराम मचा रहा है,
विज्ञान वैक्सीन नहीं खोज पा रहा है,
चीन की गलती की सजा संसार भुगत रहा है,
मानवता आज सहम कर, मज़बूरी पर घबराई है।

पुरे विश्व में
महासंक्रमण फ़ैल रहा है,
जैविक युद्ध का खतरा बढ़ रहा है,
चारों तरफ तबाही का मंजर दिख रहा है,
सारी दुनियाँ घरों में बंद, विकट स्थिति आई है।

हर इंसान बेबस
और लाचार हो रहा है,
कोविद -19 तहलका मचा रहा है,
मानव का गुमान धराशाई हो रहा है,
प्रकृति के ऊपर कोई नहीं, यह भी सच्चाई है।

कोविद - 19 ने 
दुनियाँ का चैन छीन लिया है,
हर देश में आज कहर बरपा रहा है, 
देश-विदेश में लाशों का अम्बार लग रहा है,
ऐसा भयावह नज़ारा देख, मेरी कलम भी थर्राई है।

 



प्रवासी मजदूरों का पलायन

लॉकडाउन के चलते
मजदूर बेघर हो रहा,
कोरोना और बेरोजगारी
दोनों की मार से मर रहा।
सैंकड़ों मील पैदल चल अपने घर लौट रहा, कोरोना त्रासदी का दर्द उसके चेहरे से झलक रहा। घर वापसी का सफर मौत का सफर बन रहा, सड़कों पर जगह-जगह हादसों का शिकार हो रहा। सरकार पर्याप्त मात्रा में गाड़ियां नहीं दे पा रही, पैदल यात्रा करने वालों पर पुलिस लाठियाँ बरसा रही।
देश के निर्माणकर्ताओं की
आज किसी को चिंता नहीं,
सैंकड़ों घर बनाने वालों का
आज अपना कोई घर नहीं।





याद आता मुझको मेरा गाँव

बहुत याद आता है,  मुझको मेरा गाँव
कुँआँ वाले पीपल की, ठंडी-ठंडी छाँव।

                     सोने जैसी माटी, जहाँ हरे-भरे खेत 
                     बहुत याद आती है, धोरा वाली रेत।
                 
खेतों में छाँव करते, खेजड़ी के पेड़       
हरे-हरे पत्तों को, चरती बकरी भेड़।

                    पशुओं का घर आना, गोधूलि की बेला
                    बच्चों का खेलना, लुका छिपी का खेला।
               
खुला - खुला आसमाँ, तारों भरी रात
चाँद की चाँदनी में, करते मीठी बात।

                     सावन में झूला झूलते, फागुन में होली
                     याद आती है मुझको, गाँव की दिवाली।

गणगौर के मेले में,  बैलों का दौड़ना
औरतों का गीतों संग, गणगौर पूजना।

                     कुऐ का ठंडा - ठंडा, अमृत जैसा पानी
                     रात को अलाव पर, सुनते रोज कहानी।
                   
बहुत याद आता है,  मुझको मेरा गाँव
कुँआँ वाले पीपल की, ठंडी-ठंडी छाँव।

गरीबी को मिटाया जाय -- 55

 झारखण्ड के                                                            
आदिवासी इलाके में
भूख से परिवार की मौत। 

बिहार में 
कड़ाके की ठण्ड से 
सात लोगों की मौत। 

चिकित्सा के
अभाव में नवजात की
असामयिक मौत। 

समाचार पत्र में
इन खबरों का शीर्षक
सही नहीं लिखा गया था। 

परिवार की
मौत भूख से नहीं
गरीबी से हुई थी। 

उनके पास 
अनाज खरीदने के लिए
पैसे नहीं थे। 

सात लोगों 
की मौत ठण्ड से नहीं
गरीबी से हुई थी। 

उनके पास 
कपड़े खरीदने के लिए
पैसे नहीं थे। 

नवजात की मौत
बीमारी से नहीं
गरीबी से हुई थी। 

उनके पास 
दवा खरीदने के लिए
पैसे नहीं थे। 

यदि हम चाहते हैं कि
इस तरह की घटनाएं
 नहीं घटे तो हमें 
 गरीबी को मिटाना होगा। 

रुपये किलो
चावल बांटने या
मुफ्त में साइकिल
देने से काम नहीं चलेगा। 

हर हाथ को
काम देना होगा
देश में काम करने का
वातावरण बनाना होगा। 

घर बैठे पैसे दे कर
मुफ्त में अनाज बांट कर
वोट बैंक तो बनाया जा सकता है
मगर गरीबी नहीं मिटाई जा सकती। 

अकर्मण्य बनाने से अच्छा है
उन्हें कर्म करने के लिए
प्रेरित किया जाय
हाथों को काम देकर
गरीबी को मिटाया जाय। 


ok  


 

ok

गांव बदल गया है

बाजरी की रोटी
      दूध भरा कटोरा 
            कहीं खो गया है,
                  गांव शहर चला गया है। 

चौपाल की बैठक 
       चिलमों का धुँवा 
             कहीं खो गया है,      
                     गांव शहर चला गया है। 

गौरी की चितवन 
       गबरू का बांकापन 
              कहीं खो गया है, 
                     गांव शहर चला गया है। 

होली की घीनड़ 
      गणगौर का मेला 
            कहीं खो गया है, 
                   गांव शहर चला गया है। 

बनीठनी पनिहारिन 
          कुए का पनघट 
               कहीं खो गया है, 
                   गांव शहर चला गया है। 

अलगोजे का गीत 
       सावन का झूला 
            कहीं खो गया है, 
                  गांव शहर चला गया है। 

ok









महानगरीय जीवन -- 67

महानगरीय जीवन का
वह भयावह पहलू 
जहाँ जिंदगी आज भी
नरक से कमतर नहीं है। 

दिन भर सड़कों पर 
भीख माँगने के उपरान्त
गरीब परिवार आज भी 
गट्टरों में रहने को मजबूर है। 

भूख से छटपटाते
लावारिस बच्चे
आज भी पुलों के नीचे 
सिर छिपाने को मजबूर है। 

फटे-पुराने चींथड़ों में लिपटे 
अपाहिज और भिखमंगें
आज भी सड़कों के फुटपाथों पर
जीवन बसर करने को मजबूर है। 
 
गृह-विहीन मजदुर परिवार
गंदे नालों के पास बसी 
झोंपड़ियों में आज भी 
रहने को मजबूर है। 

महानगरों में रह कर भी 
अपनी गरीबी और लाचारी पर 
आज भी इन्हें हँसना और रोना 
एक जैसा लगता है। 

ok 

चरवाहे -- 76

                                                                           मैंने देखा है
चरवाहों को खेजड़ी की
छाँव तले अलगोजों पर
मूमल गाते हुए। 

मैंने देखा है
चरवाहों को दूध के साथ
कमर में बंधी रोटी को
खाते हुए। 

मैंने देखा है
चरवाहों को भेड़ के 
बच्चे को गोद में लेकर
चलते हुए। 

मैंने देखा है
चरवाहों को शाम ढले
टिचकारी से ऐवड़ को 
हाँकते हुए। 

मैंने देखा है
चरवाहों को खेतों में
मस्त एवं स्वच्छंद जीवन
जीते हुए।

ok

पिट्सबर्ग की एक शाम --63

                                                                       मैं कमरे में बैठा 
काँच की खिड़की से  
बाहर का
नज़ारा देख रहा हूँ। 

बाहर आसमान 
से गिरती धवल हिमराशि
काश के 
फूलों जैसी लग रही है। 

बीच-बीच में 
 रंग बदलते पेड़ों के
 पत्तों का 
शोर सुनाई पड़ रहा है। 

बगीचे में 
टिमटिमाते जुगनू
  खिड़की से 
बारबार टकरा रहें हैं। 

खरगोश 
रात के अँधेरे में 
 हिम से बचने 
झाड़ियों में छुप रहें हैं। 

दौड़ती सड़कें 
 बर्फ की चादर
ओढ़ कर 
खामोश हो रही है। 

एक चपल गिलहरी 
पेड़ के ऊपर 
अभी भी 
   फुदक रही है। 

ok 

ऐसा मेरा देश हो -- 64

 हर बच्चे को शिक्षा मिले,
         हर रोगी को दवा मिले,
               देश से महँगाई मिटे,
                   चहु और खुशहाली हो,
                             ऐसा मेरा देश हो।

हर भूखे को भोजन मिले,
        हर हाथ को काम मिले,
               ऊँच-नीच का भेद मिटे,
                      भ्रष्टाचार का अन्त हो,
                                 ऐसा मेरा देश हो।

हर नारी को सम्मान मिले,
       हर परिवार को घर मिले, 
               बेटी-बेटे का भेद मिटे,
                     दुनिया में सम्मान हो,
                              ऐसा मेरा देश हो।

सब को सच्चा न्याय मिले,
       सब को सुनहरा कल मिले,
               नफ़रत की दीवार मिटे, 
                      राजधर्म का पालन हो, 
                                 ऐसा मेरा देश हो।

वृद्धजनों को आदर मिले,
       सब धर्मों को मान मिले,
              घृणा-द्वेष का भाव मिटे,
                       छुआछूत का अन्त हो, 
                                  ऐसा मेरा देश हो। 

ok 

कोरोना से कैसा डर --111

कोरोना से कैसा डर,आया है चला जायेगा 
तू सकारात्मकता से सोच कर के तो देख।  

                  कोरोना को हम सब,  साथ मिल हराऐंगे 
                 तू एक बार कदम आगे बढ़ा कर तो देख। 

छट जाएंगे बादल, संशय और जड़ता के 
तू एक बार मन में साहस भर के तो देख। 

              कट जाएगी रात, सवेरा निश्चित आएगा 
              तू एक बार खिड़की खोल कर तो देख। 

आसमान को छू लेना कोई मुश्किल नहीं 
तू बस एक बार हाथ उठा कर के तो देख। 

           बैठते थे हम जहाँ कॉफी पीने साथ -साथ 
          मैं आज वहाँ जा रहा हूँ, तू भी आ के देख। 

पुरानी यादों का पिटारा फिर खुल जाएगा 
तू एक बार चाय पर बुला कर के तो देख। 

           ठहाकों की महफ़िल जल्द ही फिर सजेगी 
           तू एक बार फिर से आवाज देकर तो देख। 

ok