Wednesday 23 June 2021

                                                        जीवन परिचय 


नाम             : भागीरथ कांकाणी 

जन्म स्थान    : बलदू  (लाडनू ) नागौर,राजस्थान 

शिक्षा           : वाणिज्य में स्नातक 

सम्प्रति         :व्यवसाय  ( आयात- निर्यात )

प्रकाशित      : संकट मोचन नाम तिहारो 
पुस्तकें           कुमकुम के छींटे 
                     एक नया सफर 
                     कुछ अनकही..... 

अभिरुचियाँ  : देश-विदेश भृमण,समाज सेवा, 
                      फोटोग्राफी,लेखन। 

सम्मान        : राजस्थान सरकार द्वारा  
                    भामाशाह सम्मान से सम्मानित।  
                    इंडिया इंटरनेशनल फ्रेंडशिप 
                    सोसाइटी द्वारा सम्मानित। 

सम्पर्क         :M - 98300 65061
                    :E mail - kankanibp@gmail.com
                    :https://santamsukhaya.blogspot.com
                    
प्रतिष्ठान :  इंडिया ग्लेजेज़ लिमिटेड 
                6 लॉयंस रेन्ज, 4 तल्ला 
                कोलकाता - 700 001 
                         
                अस. बी, जिरकॉन ( प्रा.) लिमिटेड 
                प्लॉट नम्बर - 306 , सेक्टर -9 
                फरीदाबाद (हरियाणा ) 121006 

               


Wednesday 16 June 2021

मेरा प्रेम-पत्र

मैं चाहता हूँ तुम्हें
एक बार फिर से लिखूँ 
खुशबु और प्यार भरा
एक प्रेम-पत्र

तुम गली के मोड़ पर
फिर से खड़ी हो कर 
करो इन्तजार डाकिये का
लेने मेरा प्रेम-पत्र

बंद कर दरवाजा
फिर पढ़ो चुपके-चुपके
मेरा प्रेम-पत्र

तकिये पर सिर रख
चौंको किसी आहट पर
पढ़ते हए मेरा प्रेम-पत्र

झूमते तन-मन से
बार-बार पढ़ो 
तुम मेरा प्रेम-पत्र

मेरे प्यार का
तुम्हें एक बार फिर से
अहसास दिलाएगा
मेरा यह प्रेम-पत्र।

तुम हो मेरे जीवन साथी

तुम हो मेरे जीवन साथी 
साथ - साथ चलते रहना,
अगर कहीं मैं थक जाऊं 
हाथ पकड़ बढ़ते रहना। 

मैं हूँ नादां समझ नहीं है 
तुम  थोड़ा  समझा देना, 
अगर कहीं मैं भूल करूँ 
तुम अनदेखी कर देना। 

जैसे चन्दन में सुगंध बसे 
मेरे जीवन में तुम बसना, 
कभी न छूटे साथ हमारा 
स्वप्न सलोने बुनते रहना। 

एक ही मंजिल है दोनों की 
मुश्किल में हिम्मत रखना,
प्यार भरा रिश्ता है अपना
जीवन भर साथ निभा देना। 


एक नया अर्थ

सूरज तो आज भी निकला है
फूल आज भी खिलें हैं
हवा आज भी चली है
मगर आज तुम नहीं हो।

यह सूरज की लालिमा
यह फूलों का खिलना
यह हवा का चलना
मेरे लिए आज एक
नया अर्थ लेकर आया है।

कल की सुबह
और आज की सुबह में
कितना अंतर है
यह मेरा मन समझता है।


हम दोनों का प्रेम

तुम्हारे और मेरे बीच 
पचास साल से 
प्रेम और विश्वास का 
सम्बन्ध है। 

तुम बोलते हो तो
मैं उसे सुनती हूँ,
तुम्हारी आवाज की चुप्पी
से भी मैं समझ जाती हूँ। 

कभी-कभी भ्रमवस
पूछ भी लेती हूँ कि
क्या तुमने मुझे कुछ कहा ?
तुम सुन कर हौले से
मुस्करा देते हो। 

तुम्हारा चुप रह कर
मुस्कराना भी मुझे
बहुत कुछ कह जाता है। 

तुम्हारा संवादहीन होना भी
मेरे लिए एक अर्थ रखता है। 

वह है तुम्हारा प्रेम
हमारा प्रेम
हम दोनों का प्रेम।


Monday 14 June 2021

मातृभाषा कराह रही है

आज के बच्चे जो 
पढ़-लिख गए हैं 
अंग्रेजी बोलने में ही 
गर्व का अनुभव करते हैं।   

अपनी मातृभाषा में 
बात करने में अब 
उनकी जबान ऐंठती हैं।  

ठंडे ज़ायक़े को 
दिमाग में घोलते हुये 
विदेशी भाषा बोलने में ही 
अपनी शान समझते हैं।  

भूले से भी नहीं दिखती 
उन्हें अपनी जमीन  
जिसकी जड़ों को लगातार 
काट रहे हैं। 

आत्मप्रदर्शन और   
आत्मप्रशंषा के शिकार 
खुदगर्जों के पार्श्व में बैठी 
मातृभाषा आज कराह रही है। 




कागज की कश्ती

अब नहीं रहा
बच्चों का बचपन
हमारे जमाने जैसा  

अब डेढ़ बरस में
प्लेग्रुप और ढाई में तो
स्कूल चले जाते हैं बच्चे। 

बँट चुका है
उनका बचपन अब
स्कूल और क्रैच में। 

सुबह जाते हैं स्कूल
शाम ढले मम्मी संग
आते हैं क्रैच से। 

दोस्तों की शैतानियाँ 
मेडम की बातें
अपनी हरकतें अब वो 
नहीं कहते मम्मी से। 

अब उनका बचपन
न तो मुस्कराता और
नहीं इठलाता है

खो गई है उनकी
मासूमियत भरी मस्ती
अब पानी में नहीं तैरती
उनकी कागज की कश्ती।

 

फिर भी मैं चलता रहा


उसकी शरारतें याद कर, रात भर जागता रहा। 
उसकी हँसी ओ दिल्लगी से, मन बहलाता रहा।। 

मैं तो अब लम्बी जिंदगी नहीं, मौत मांग रहा। 
मौत के बाद, उसके दीदार की हसरत मांग रहा।  

मैं उससे लड़ता रहा, लड़के हारता भी रहा। 
मगर हार करके भी, उसी से फिर लड़ता रहा।।

आँखें बंद किये मैं रात भर, ख्वाब देखता रहा। 
ख़्वाब में मिलने आएगी, यही आश लगाए रहा।।   

मुड़ मुड़ जो देखती थी, उसका संग नहीं रहा। 
मैं भी उसे भूलते-भुलाते, वक्त को काटते रहा।।   
           
दिल में यादें संजोए, आँखों में पानी भरता रहा। 
न मंजिल न हमसफ़र, फिर भी मैं चलता रहा।। 


ok

Thursday 10 June 2021

        भूमिका 

                                              "सिसकियों पर महीन नक्काशी
                                                आंसुओं पर लगाम कविता है"

                                     साहित्य की सर्वाधिक लोकप्रिय विद्या है कविता। मार्मिकता, प्रभविष्णुता तथा कम शब्दों में बड़ी बात कहने की अद्भुत क्षमता के कारण पाठकों के बीच उसने अलग स्थान बनाया है। भावाकुल क्षणों में अनुभूति जब अपनी अभिव्यक्ति के लिए मार्ग तलाशने लगती है, कविता का रूप - आकर स्वतः निर्मित होने लगता है। कह सकते हैं कि कल्पना और विचार के तालमेल से सृजन के विशेष क्षणों में एक साँचा - सा तैयार होता है, जो रचनाकार की क्षमता, योग्यता, पात्रता एवं प्रतिभा के आधार पर अपनी जमीन का निर्माण करता है। कवि देवेन्द्र आर्य की चार पंक्तियाँ याद आ रही हैं ---

                                    दिल का बोला, दिमाग का लिक्खा, रौशनी का कलाम कविता है 
                                     सिसकियों पर महीन नक्काशी,  आंसुओं पर लगाम कविता है" । 
                                कुछ बहुत व्यक्तिगत सी बातों का, खास कुछ इंतजाम कविता है,
                                      जितने भी शब्द है जमाने में, उनका अंतिम मुकाम कविता है।

                                   कविता के प्रति उपर्यंकित विचारों - भावों के आलोक में श्री भागीरथ कांकाणी की पाण्डुलिपि "स्मृति मेघ"  के भावोदगारों से गुजरने का सुयोग मुझे सुलभ हुआ सम्मान्य बन्धु  श्री भागीरथ चाण्डक, श्री महावीर बजाज तथा श्री बंशीधर शर्मा के माध्यम से। 

                                "स्मृति मेघ" की अभिव्यक्त्तियाँ प्रिया की वे यादें हैं, जो मेघ की तरह उमड़-घुमड़ कर रचनाकार को उद्वेलित करती रहती हैं। पत्नी के वियोग की वेदना जब संवेदना से सम्पृक्त होकर चेतना को झकझोरती है,  भावों का आवेग प्रबल हो जाता है। उस विचार- प्रवाह को कलमबद्ध करने का रचनात्मक प्रयास किया है श्री भागीरथ कांकाणी ने।  इसी प्रक्रिया को विज्ञजनों ने कविता के निर्माण की पीठिका माना है। याद आ रहे हैं प्रख्यात कवी केदारनाथ अग्रवाल। उनकी स्वीकारोक्ति है ---

                                   क्यों आते हैं भाव, न जिनका मैं अधिकारी,
                                   क्यों आते हैं शब्द, न जिनका मैं व्यवहारी। 
                                   कविता   यों  ही   बन  जाती है बिना बनाए,  
                                   क्योंकि ह्रदय में तड़प रही है याद तुम्हारी।।  

                           स्वयं कांकाणी जी कहते भी हैं --"कविताओं के संग, यादों का चिराग जलता रहा /  आँखें बरसती रहीं,कविताओं में दर्द रिसता रहा" । परन्तु प्रिया की याद केवल अश्रुपात नहीं कराती, सुकून का अहसास भी कराती है। "सुकून भरी तुम्हारी यादे" में रचनाकार कह उठता है ---

                                  "मेरी खुशियों में तुम हो / मेरी मंजिल में तुम हो ।। 
                                   मेरी  जिन्दगी  में तुम हो, मेरी बंदगी में तुम हो  ।।"   

                         यादों के गलियारे में विचरते - रमते हुए कवी अपनी भार्या के साथ व्यतीत 50 वर्षों के स्वर्णिम सान्निध्य का रोमंथन (जुगाळी ) करता है। अतीत के व्यतीत सुखद क्षणों का आनंद, वियोग की वेदना को द्विगुणित क्र देता है; और तब कागज़ पर उतरने लगाती है पीड़ापुरीत पक्तियाँ।  'एक कहानी का अंत' रचना में उसकी सीधी सपाट उक्ति है ---

                            "तुम थी तो जिन्दगी / भोर की लालिमा लगाती थी  /
                             लेकिन अब तो / साँझ की कालिमा लगाती है / 
                            अब तो / घुटन, तड़पन, उदासी. अकेलापन /
                             यही रह गया है जीवन में। "

                         भावों को प्रकट करने की यह सहजता कांकाणी जी की विशेषता है। अपनी अनुभूति को बिना रंगे -चुने, सीधे - सीधे व्यक्त कर देने की यह ईमानदारी प्रभावित करती है। इसीलिए इन अभिव्यक्तियों में काव्यगत रस, अलंकार, छंद, उक्तिवैचित्र्य आदि की तलाश करने वाले सुधीजनों को निराशा ही हाथ लगेगी। परन्तु यह भी सच है कि इन रचनाओं में अभिव्यक्ति की सहजता और संवेदना की मार्मिकता का अनुभव सहृदय पाठकों को बार - बार होगा।  

                      आदि कवि बाल्मीकि की संवेदना, क्रौच - बध की पीड़ा से उत्पन शोक को श्लोक में रूपान्तरित करने में समर्थ होती है।  इसे ही प्रख्यात आधुनिक कवि सुमित्रानंदन पंत इस रूप में अभिव्यक्त क्र अमर पंक्तियों का सृजन करते हैं ---
                      'वियोगी होगा पहला कवि , आह से उपजा होगा गान। 
                उमड़कर आँखों से चुपचाप , बही होगी कविता अनजान।।' 

                     जिस प्रिया को कांकाणी जीने 'कविता का संगीत' और 'कविता का छन्द' मानकर सम्मानित किया हो, उसके न रहने का गम उसे सालता तो रहता है परन्तु वह उससे उबर कर जिस भावलोक में पहुंचता है, उसकी बानगी इन पंक्त्तियों में ध्यातव्य   है ---

           "मैं चाहता हूँ / तुम्हारी यादों को / कविता और गीतों के माध्यम से सहेजकर रख लूँ। 
    ताकि जब तुम मुझे / पराजगत में / किसी मोड़ पर मिलो /  मैं इनकी बंदनवार सजा सकूँ। "

प्रेम की पराकाष्ठा की प्रतीति कराने वाले इन स्मृति - बिंबों के अतिरिक्त इस संग्रह की कुछ अन्य कविताएँ भी हृदयस्पर्शी हैं। गाँव पर केन्द्रित कविताएँ हो या प्रकृति - प्रेम से जुड़ी अभिव्यक्तियाँ, माटी के साथ रचनाकार के लगाव को रेखांकित करती हैं। घर, परिवार,समाज केसाथ महानगरीय जीवन की विडंबनीय स्थितियाँ कांकाणी जी की पैनी नजर से अछूती नहीं रह पाती।  उन पर सकारात्मक टिप्पणी करते हुए जो रचनाएँ लिखी गई हैं, वे नई पीढ़ी के लिए मननीय हैं। "कोरोना वायरस" तथा "मजदूरों के पलायन" पर उनकी कविताएँ, समसामयिकता से  साक्षात्कार  कराती है।  " मैं कविता ही लिखता रहूँ " शीर्षक रचना में कविता की महिमा का बखान कांकाणी जी के शब्दों में --


                              "तन्हाई के दिनों में हमसफ़र का काम कविता करती है,
                                   दुःखों केसागर में पतवार का काम कविता करती है। 
                        डगमगाते कदमों को सहारा देने का काम कविता करती है,
                                  बहते आँसुओं को पोंछने का काम कविता करती है। 
                                  निराशा की धुंध में आशा का संचार कविता करती है,
                                          सोए हुए को जगाने का काम कविता करती है"। 

                            कहने की आवश्यकता नहीं कि अपने इसी वैशिष्ट्य के कारण कविता सुधीजनों का कंठहार है। इस रचना के अंत में कवि अपनी इच्छा व्यक्त करते हुए कहता है ---- "मैं चाहता हूँ / जीवनके अवसान तक  / कविता लिखता रहूं।"
 
                        कवि की यह आकांक्षा फलीभूत हो, इस कामना के साथ मैं इस कृति का स्वागत करता हूँ।  साथ ही यह शुभेच्छा भी व्यक्त करता हूँ कि सह्रदय पाठक इन रचनाओं का स्वागत करेंगे। 


                                                                                                                     s /d 

                                                                                                         ( डा० प्रेमशंकर त्रिपाठी )
                                                                                                                  अध्यक्ष 
                                                                                                बड़ाबजार कुमारसभा पुस्तकालय 
                                                                                                              कोलकाता। 

संपर्क :
आशीर्वाद  अपार्टमेण्ट्स 
CA - 5 / 10 देशबंधु नगर , बागुईहाटी 
कोलकाता  - 700 059 
मोबाइल न० : 98306 13313 


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Saturday 5 June 2021

प्रकाशक :
लेखक 
इंडिया ग्लेजेज़ लिमिटेड 
6 लॉयन्स रेंज, 4 तल्ला  
सूट नo  3 और 4 
कोलकाता -700 001 


दूरभाष :  ( 033 ) 40628366 
मोबाईल : 098300 65061 
E -mail : kankanibp@gmail. com 
Website : smritimegh.blogspot.com


(C) : भागीरथ कांकाणी 

ISBN No. : 978 -93 -5473 004 -7 


प्रथम संस्करण : 16 फरवरी, 2022 

मूल्य : 300 रु.

मुद्रक :

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मोबाईल :
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Smriti Megh   : By Bhagirath Kankani, Price Rs. 300/-





                            मेरी छोटी बहन यशोदा                
                                            और 
                               छोटे भाई बृजमोहन की
                                          याद में 
                                                        जिनका खिलता बचपन 
                              असमय ही काल कलवित हो गया। 

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Thursday 1 April 2021

शीर्षकानुसार समीक्षागीत

'जीवन की हकीकत' समझ आयी, 'बन्द कमरे में रोया',
'ठगिनी  बयार' क्या बही, 'यादों में गाँव'  उभर आया। 

ये 'दो दिन का बस मेला है', जो 'अपनी विरासत' झेला है,
'मेरी कलम भी थर्राई है', जब पाया खुद को अकेला है। 

हर रोज 'प्रवासी मजदूरों का पलायन' रोके नहीं रुका,
'याद आता मुझको मेरा गाँव' यह सोच मन नहीं थका। 

'यह कैसी विडम्बना है' जो अब दहेज़ है अभिशाप यहाँ, 
यह नहीं चलेगा रीति बदल दो तब सुधरेगा समाज यहाँ।  

फिर से 'देखो बसन्त आ रहा',  शाख-शाख बौरायी है, 
'संयमित जीवन' रहा है, तभी तो चहरे पर अरुणायी है। 

'सोने का मृग'  क्या दिखा, दौड़ते हुए जवानी बीत गयी,
जब 'घर की निशानी चली गयी' तब लगा उमर छली गयी। 

'विक्टोरिया मेमोरियल' से 'पाखण्डी बाबा' तक के ढोल,
'काश ! कोई लौट आये अपना' जो  बोले  प्रीति के बोल। 

पीहर हो या ससुराल हर कहीं बस यादें ही यादें हैं,
'बम बम बोले रे काँवरिया' कुछ कसमें है कुछ वादे हैं। 

'बेटी की बिदाई' की बेला, सचमुच कितनी दुखदायी है, 
कहने को बेटी अपनी है, पर होती सदा परायी है। 

सुख से भर पेट मिले रोटी, यह आज सभी का सपना है, 
पर होता ऐसा कहाँ कभी, यह तो बस महज कल्पना है। 

'दीवार पर टँगा हुआ चित्र', लगता है जैसे बोल रहा,
'मेरा मन आज उदास हो गया', 'ख्वाब अधूरा' डोल रहा। 

हाँ 'मायाजाल महानगरों का'. किसको नहीं लुभाता है, 
अब भी गाँवों  से सपने ले कर, आँखों में आ जाता है।   

'देखो कैसा भूकम्प आ गया'. यह प्रकृति का है प्रकोप, 
 क्यों आज आदमी अपने हाथों, लाखों झंझट रहा है रोप।

'कुछ यादें कुछ अहसास', साथ में 'परोपकार' निशानी है,
'मोबाइल व्यसन बना' ऐसा, ये सबसे दुखद कहानी है।  

'चाँदनी संग लौट आना' तुम, 'जीवन बेराग' हुआ अपना, 
'मेरे अधरों पर गीत नहीं', 'हाथों से सजाऊँ' जो सपन।

'एक बार लौट आओ' देखो, तनहा मन कैसे सोया था, 
कैसे बतलाऊँ प्रिय ! 'बंद कमरे में कितना रोया था'।

'ढलते मौसम के साथ'. तुम्हारा मेरा 'वह खुशनुमा सफर',
यदि साथ "और तुम आ जाओ," हो जाये ज्यादा सुखकर।

कभी-कभी लगता कि, 'तुम तो आज भी मेरे संग हो',
'चलो भीगते हैं' सुमुखि ! वर्षात के मौसम में  संग हो।      

                      
                                                                                                        s /d 
                                                                                रचियता डॉ० श्री मदनलाल वर्मा "क्रान्त "

सम्पर्क :
E -55  बीटावन 
ग्रेटर नोयडा 201310 
मोबाइल : 98118 51477 


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स्मृति मेघ

छा रहे हैं स्मृति मेघ 
मेरे  मन - पटल पर,
             भूल  पाना  है कठिन 
             एक पल भी भूल कर। 


आज भी खुशियाँ बिछाये
प्रिय !  स्मृति मेघ  तुम्हारे, 
             खुशियों के फूल खिलाऐ 
             जीवन  की राहों  पर मेरे। 

तेरे गीतों की सरगम पर 
मैंने यह  साज उठाया है,
            तेरी  यादों  के साये में 
            ये स्मृति मेघ बनाया है।  

इन स्मृति मेघ के छन्दों में
बस  याद तुम्हारी बनी रहे,
          मेरे मन  की सीमाओं पर 
         तेरी ही प्रिये ! पहचान रहे।


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Tuesday 30 March 2021

शुभानुशंसा

माताजी थी भंवरी देवी,
पिताजी सेठ पुसराज। 
सोलह फ़रवरी  १९४७, 
घर में जन्में युवराज।।

नामकरण उनका हुवा,
भागीरथ प्रसाद। 
जैसी वंश -परम्परा,
वैसी ही मर्याद।। 

बीस मई १९६४ को,
जब हुआ विवाह। 
सुशीला के स्वजन सभी, 
कह उठे वाह ! वाह !

अगरतला रह कर किया,
पटसन का व्यापार।
तिलहन का धन्धा किया,
लीचीनगर बिहार ।।  

हरियाणा में शुरू किया,
सेरामिक्स का काम। 
कोलकाता में आढ़ती,
बने कमाया नाम ।। 

बड़े श्यामसुंदर सुवन 
दुजे राजकुमार। 
नीलकमल थे तीसरे,
चौथे मनीषकुमार। 

बहुऍं क्रमशः शशिकला,
रश्मि व पूनम और।  
चौथी राजश्री सुता, 
जैसी सब शिरमौर।। 

देकर के परिवार को,
हुई शुशीला मौन। 
घरवाली बिन गेह को,
भला सम्हाले कौन ।। 

अर्द्धागिनी-वियोग से,
मन में हाहाकार। 
ऐसा हुआ कि बह चले,
कविता-स्रोत अपार ।। 

संकट मोचन नाम तिहारो,
कुमकुम के छींटे। 
एक नया सफर के बाद,
कुछ अनकही भी लिखे ।। 

रचियता डॉ० श्री मदनलाल वर्मा "क्रान्त "
होलिकोपरान्त  दुलहन्डी  विकर्मी संवत २०७७ 

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Saturday 27 March 2021

भोग का चिंतन नहीं छोड़ सके

वेदियाँ सजाते रहे 
हवन करते रहे 
तिलक लगाते रहे 
भंडारा करते रहे 
मगर अंतस का 
परिवर्तन नहीं कर सके। 

तीर्थों में घूमते रहे 
श्रृंगार कराते रहे 
दर्शन करते रहे 
प्रसाद लेते रहे  
मगर जीवन से 
राग-द्वेष को नहीं छोड़ सके। 
 
व्याख्यान सुनते रहे 
जयकारा लगाते रहे 
माला फेरते रहे 
कीर्तन करते रहे 
मगर अहं का 
अवरोध नहीं हटा सके। 

मंदिरों में जाते रहे 
आरतियाँ करते रहे 
घंटियाँ बजाते रहे 
चरणामृत लेते रहे 
मगर भोग का 
चिंतन नहीं छोड़ सके।  



मोबाइल व्यसन बनता जा रहा है

 दिन भर मोबाइल पर बातें करना,
         फेस बुक पर तस्वीरें भेजते रहना, 
               वाट्सएप्प पर मैसेज आते रहना, 
                     जीवन इसी में सिमटता जा रहा है, 
                            मोबाइल व्यसन बनता जा रहा है। 

दिन भर अंगुलियाँ नचाते रहना, 
       नए पोस्ट फॉरवर्ड करते रहना, 
               लाइक्स -कमेंटस गिनते रहना, 
                     सोशियल साईट्स जकड़ रहा है, 
                         मोबाइल व्यसन बनता जा रहा है। 

 मोबाइल पर दोस्त बनाते रहना, 
        परिवार से सम्बन्ध टूटते रहना, 
                मिलना-जुलना कम होते रहना,
                      जीवन एकाकी बनता जा रहा है, 
                              मोबाइल व्यसन बनता जा रहा है। 

पब्जी, टिक-टोक में खेलते रहना,
         चैटिंग में समय नस्ट करते रहना,  
                वेब सीरीज का नशा बढ़ते रहना, 
                      नोमोफोबिया में जकड़ता जा रहा है, 
                              मोबाइल व्यसन बनता जा रहा है। 

रेडिएशन्स का खतरा बढ़ते रहना,  
       अनिद्रा और गर्दन अकड़ते रहना, 
                आँखों के रोगों का बढ़ते  रहना,
                      युवा वर्ग ज्यादा फंसता जा रहा है, 
                                मोबाइल व्यसन बनता जा रहा है। 




Saturday 6 March 2021

अपनी बात

मनुष्य संवेदनशील एवं चेतना सम्पन्न प्राणी है। इसका मन प्रकृति में प्रतिपल होने वाले सौम्य, मनोरम एवं विकराल परिवर्तनों से भी भाव ग्रहण करता है और अपने आस-पास होने वाले दु:ख-सुख, आशा-निराशा, प्रेम-घृणा, दया-क्रोध से भी चलायमान होता रहता है। मनुष्य की इसी प्रवृत्ति की प्रेरणा से ज्ञान एवं आनन्द के उस भण्डार का सृजन, संचय एवं संवर्द्धन होता रहा है जिसे साहित्य कहते हैं। उसी साहित्य का एक अंग कविता है। समें छन्द व अलंकार पर बल नहीं दिया है, केवल एक बात पर बल दिया गया है, वह अभिव्यक्ति की हृदयस्पर्शी प्रभावोत्पादकता, जिससे यथाभाव की गूढ़तम अनुभूति हो सके। 

जीवन में मिलना - बिछुड़ना तो चलता ही रहता है, लेकिन मौत के बाद किसी से फिर मिलने की उम्मीद नहीं रहती।मौत पर किसी का बस नहीं होता। जब भी कोई अपने साथी को खोता है, तो उसका जीवन रंगहीन हो जाता है। वह उस पल को कोसता है, जब उसने अपने साथी को खोया। वह   छटपटाता है कि काश एक मौका फिर मिल जाय और वो उसे वापिस ले आये। लेकिन मौत वो अंत है, जिसकी शुरुआत नहीं होती। जाने वाला चला जाता है, लेकिन जीवनपर्यन्त दुःख अपनों को दे जाता है। समय घावों को भर देता है, लेकिन दिल में बैठी वो टीस कभी नहीं भरती।  

मेरी सहधर्मिणी स्व.सुशीला कांकाणी के वियोग से, ह्रदय में उपजी पीड़ा से, मैंने  ''कुछ अनकही..... '' काव्य संग्रह को जन्म दिया था। इस संग्रह में कोई चमत्कारिक काव्य शिल्प, कल्पना की ऊँची उड़ान या जटिल शब्दावली न हो कर सहज, प्रवाहमयी और संवेदनाओं को गहराई तक स्पर्श करने वाली कविताएं मैंने लिखी थी। इस संग्रह को आप सभी का भरपूर प्यार व आशीर्वाद मिला तदर्थ मैं आप सभी का हृदय से आभार प्रकट करता हूँ। 

इस पुस्तक को पढ़ कर अनेक पाठक/ पाठिकाओं की प्रतिक्रियाएं मुझे मिली थी। मैं सभी को यहाँ उदघृत तो नहीं कर पा रहा हूँ, केवल एक प्रतिक्रिया मैं सन्दर्भ के रूप में दे रहा हूँ, -----"अंतिम पृष्ठ तक पहुँचते - पहुँचते कितनी ही बार अक्षर धुँधले से हुए। एक-एक गिलास पानी पीकर, हर कविता में रचे इस दर्द को बर्दास्त करने की कोशिश करने के साथ ही, मैं पुस्तक को पूरी पढ़ सकी।" पाठकों के इस तरह से लिखे भावों को पढ़ कर, मुझे लगा कि मेरा लिखना सार्थक रहा। कुछ कविताएँ पिछले संग्रह में संकलित होने से रह गई थी, वो कविताएँ मैं इस संग्रह में दे रहा हूँ। आशा करता हूँ, पाठकवृन्द पसंद करेंगे। 

मेरे बचपन का गाँव आज भी मेरी यादों में बसा है। खेतों की सुनहरे रंग की बालू, जहाँ पर लहराती है बाजरी और मोठ की फसलें। खेजड़ी और रोहिड़े के सुन्दर वृक्ष, जिन पर चहकती हैं रंग-बिरंगी चिड़ियाँ। मैं जीता रहा हूँ उसी स्वर्ग में। वह आज भी मेरी सबसे घनिष्ठ प्रिय जगह है। ''गांव शहर चला गया है", "अपनी विरासत", "याद आता मुझको मेरा गाँव", "गाँव का जीवन", "मेरी यादों में गाँव" आदि कविताएँ इसी सन्दर्भ में लिखी हुई है। 

शहरों में भीड़ है, लेकिन हर कोई वहाँ अकेला है। किसी के पास समय नहीं है। गाँव में भीड़ नहीं है, लेकिन सबके पास एक-दूजे की परवाह है, फिक्र है और सामाजिकता की भावना है। वहाँ शहरों की तंग गलियाँ नहीं, खेतों की मेड़ों पर प्रकृति का सहवास है। गाँव हमें भूखे नहीं मरने देगा, इसी विश्वास के साथ, कोरोना महामारी के दौरान हजारों कि० मी०  पैदल यात्रा कर प्रवासी मजदूर अपने गाँव लौटे थे।मेरी कुछ कविताएँ जैसे "प्रवासी मजदूरों का पलायन", "मेरी कलम भी थर्राई है" आदि कविताएँ आपको इसी विषय पर पढ़ने को मिलेगी।   

मेरा प्रकृति के प्रति प्रेम सदा से ही रहा है। पहाड़ों में घूमना, नदियों और झरनों के किनारे घंटों बैठना, मेरा शौक रहा है। नदियों में कल-कल की ध्वनि से बहता जल, प्रकृति की सुरभ्य एवं मनोरम वादियों की गोद, मन्द-मन्द गति से चलने वाली समीर, मुझे सदा आकर्षित करती हैं।  "कलात्मक सृजनता" को मैंने कानाताल ( उत्तराखण्ड  ) प्रवास के दौरान लिखा था। गंगा की लहरों पर संध्या की सुनहरी आभा का धीरे-धीरे नीलिमा में परिवर्तित होना, सूर्य के बिम्ब का डूबना, यह सब प्राकृतिक दृश्य देखना किस को अच्छा नहीं लगता ? मेरी कविता "मोहक स्वर्गाश्रम की छटाएँ "-  मैंने स्वर्गाश्रम के गंगा घाट पर  बैठ कर लिखी थी। 

मजदुर हमेशा से ही अभावों की जिंदगी से गुजरता आया है। कभी- कभी तो उसे पेट भर खाना भी नसीब नहीं होता। आजादी के इतने साल गुजर जाने के बाद भी, इस परिस्थिति में किसी  प्रकार का बदलाव नहीं आया है। उसके जीवन में आज भी सुख नाम की कोई चीज नहीं है। "सुख से भर पेट रोटी", "महानगरीय जीवन", "काश कोई लौट आये अपना" आदि कविताओं में मैंने अपने मन के दर्द को प्रकट किया है।  मैंने अलग- अलग वक्त में अलग-अलग विषयों पर कविताएँ लिखी है। "आया देख बसंत को", "बसंत आ रहा", "ठगनी बहने लगी बयार", आदि कवितायें बसंत ऋतु पर लिखी हुई हैं।  इसी प्रकार से कुछ कविताएँ बचपन पर लिखी हुई हैं, जैसे "कागज़ की कश्ती", "बच्चे खो रहे हैं अपना बचपन" आदिआदि।  

मेरा यह कविता संग्रह का चौथा पड़ाव है। रस, अलंकार, छंद आदि का सम्यक ज्ञान न होने के कारण, इनमें अनेक त्रुटियाँ रहना सम्भव है। मेरा यह काव्य ग्रंथ आपके मर्म-स्थल को कितना छू पायेगा, यह तो आप ही बताएँगे। पहले तीनो काव्य संग्रहों - "कुमकुम के छींटे", "एक नया सफर" और "कुछ अनकही ..... " को आप सभी का भरपूर प्यार व आशीर्वाद मिला। मैं आशा करता हूँ कि मेरे इस संग्रह को भी आपका स्नेह और आशीर्वाद पूर्व से अधिक ही प्राप्त होगा। 

इस अवसर पर मैं स्मरण करना चाहता हूँ अपनी स्नेहमयी माँ स्व० श्रीमती भंवरी देवी कांकाणी को, जिनका जीवन, संघर्ष का पर्याय रहा, जो मेरे संघर्ष की ऊर्जाश्रोत बनी एवं स्वo पिताजी श्री पुसराज जी कांकाणी को, जो आज इस संसार में न होकर भी, मेरे सृजन और मेरी यादों में सदा मेरे साथ रहे हैं। 

डॉ० मदनलाल वर्मा "क्रान्त " जी ने कविता के माध्यम से शुभानुशंसा लिख कर मेरा जो मान बढ़ाया है उसके लिए मैं उनका जितना भी आभार प्रकट करूँ वो कम ही होगा। कईं दिनों से स्लिप डिस्क की पीड़ा से परेशान रह कर भी उन्होंने सभी कविताओं को पढ़ कर उनमें रही व्याकरण की अशुद्धियों को ठीक किया। बड़े मनोयोग से पुस्तक को सजाया-सँवारा और समीक्षा गीत लिख कर मेरे इस काव्य-संकलन को गौरवान्वित किया। 

इस संग्रह की सारगर्भित, विद्वतापूर्ण व विस्तृत भूमिका हिंदी -साहित्य आकाश के उज्जवल नक्षत्र, ख्यातिलब्ध व समादृत कविता, लेख, ब्लॉग, निबन्ध व शोध लेखक डॉ 'श्री प्रेमशंकर त्रिपाठी ने लिख कर, पुस्तक को व मुझे जो गौरव प्रदान किया है, उसके लिए मैं उनका अतिशय आभारी हूँ।
 
मैं अपने परिवार के सभी सदस्यों का आभार व्यक्त करना चाहूँगा, जिन्होंने इसके लेखन का वातावरण मुझे दिया। अपने सभी सम्बन्धियों, मित्रों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना चाहूँगा, जो दूर रह कर भी मुझे लिखने के लिए प्रेरित करते रहें । मैं विजय पुस्तक भण्डार के श्री विजय प्रकाश जी अग्रवाल एवं राजा राय का हार्दिक कृतज्ञ हूँ, जिनकी इस पुस्तक को प्रकाशित करने में अहम् भूमिका रही। पुस्तक के कवर की रचना में श्री मनीष काँकाणी एवं श्रीमती पृथा आईच का विशेष सहयोग रहा।  

जल्द ही फिर मिलने की कामना के साथ --

                                                                                                                 भागीरथ कांकाणी 


ok 

भवसागर पार लगाओ

 प्रभु! करुणा बरसाओ
      आवागमन मिटे जीवन से
            अब ऐसी भक्ति जगाओ
                  भवसागर पार लगाओ।

प्रभु! ज्ञानसुधा बरसाओ
      मिथ्या मोह मिटे जीवन से
              अब ऐसी प्रीति जगाओ
                  भवसागर पार लगाओ।

प्रभु! दिव्यधार बहाओ
     कर्म के पाप कटे जीवन से
             अब ऐसी लगन लगाओ
                    भवसागर पार लगाओ।

प्रभु! प्रेमसुधा बरसाओ
     काम-क्रोध मिटे जीवन से
            अब ऐसी ज्योति जगाओ
                  भवसागर पार लगाओ।

प्रभु !शांतिसुधा बरसाओ
     लोभ-मोह मिटे जीवन से
            अब ऐसी कृपा बनाओ
                 भवसागर पार लगाओ।




मेरी अभिलाषा

                                                                      मैं बनाना चाहता हूँ   
इस धरा को वृन्दावन,
जहाँ कुंज-कुंज में हो
प्रभु के दर्शन। 

मैं लिखना चाहता हूँ
प्रभु की पवित्र कथा,
जिसे पढ़ कर जग की 
दूर हो व्यथा। 

मैं बनाना चाहता हूँ
प्रभु का सुन्दर चित्र,
जिसे देख कर सब की
आत्मा हो पवित्र। 

मैं बहाना चाहता हूँ
प्रेम की रसधार,
जिससे सबको मिले
आनंद की बयार। 

मैं जलाना चाहता हूँ
भक्ति-ज्ञान की चेतना,
जिसके प्रकाश में मिटे 
 सब की वेदना।

Friday 5 March 2021

कांटे बिछा कर नहीं

तुम अपना घर चाहे जीतनी रोशनी से सजाओ,
मगर किसी कोठरी का दीपक बुझा कर नहीं।

तुम अपने लिए चाहे जितनी ऐशगाह बनाओ,
  मगर किसी का आशियाना उजाड़ कर नहीं।

तुम अपने घर में चाहे जीतनी खुशियाँ मनाओ,
मगर किसी निर्धन की खुशियाँ छीन कर नहीं।

तुम अपने लिए चाहे  जितने पकवान बनाओ, 
 मगर किसी गरीब का निवाला छीन कर नहीं।

तुम अपने लिए चाहे जितने ख्वाब सजाओ,
मगर किसी की पीठ में छुरा भोंक कर नहीं।

तुम अपनी राह में चाहे जितने फूल बिछाओ,
  मगर किसी की राह में कांटे बिछा कर नहीं।


सावन के मेघा आए

 पुरवाई की पवन चली, अब वारिद आएंगे,   
        बिजली के संग गरजेंगे, अम्बर में छायेंगे,  
                 प्यास बुझेगी धरती की, अमृत बरसाएंगे, 
                            सावन के मेघा आए, बरसात लाएंगे। 

बागों में सावन के झूले, फिर से डालेंगे, 
          फूल खिलेंगे बागों में, पपीहारा गायेंगे, 
                  प्यास बुझेगी चातक की, मयूर नाचेंगे,  
                          सावन के मेघा आए, बरसात लाएंगे। 

इन्द्रधनुष के सातों रंग, अम्बर में छाएंगे, 
        चमचमाते जुगनू, रातों में  दीप जलाएंगे, 
                हल चलेंगे खेतों में, नव अंकुर निकलेंगे,
                           सावन के मेघा आए, बरसात लाएंगे। 

बच्चे नाचेंगे पानी में, किलकारी मारेंगे,
        टर्र - टर्राते मेंढक, पोखर में उछलेंगे, 
                  ताल-तलैया, बावड़ी, सब भर जाएंगे, 
                         सावन के मेघा आए, बरसात लाएंगे। 



फ़िर से बचपन लौटा लाए

 छोटी-छोटी बातें ही जब       
       मन में संशय जगा जाए
           आपस का विश्वास टूटे
                 रिश्ते-नाते मिट जाए।

धन का झूठा लालच जब
       मन में स्वार्थ जगा जाए
           आत्मीयता के बन्धन सारे
                  पल भर में बिखर जाए।

चंद कागज़ के टुकड़ों पर
      जीवन सुकून चला जाए
            खुशियाँ निकले जीवन से
                   भाईचारा बिखर जाए।

हो जाए जब अहम बड़ा
     कौन मन का भ्रम मिटाए
           भरोसे के लिबास में भी
               शक का दाग नजर आए।

बातों की जज्बाती चुप्पी
     मन में ढेरों संशय जगाए
          एकाकी जीवन रह जाए
               रिश्ते दिल से मिट जाए।

तुम भी वही हम भी वही
     फिर क्यों हम बैर बढ़ाए
         आओ मिल सब साथ रहें
            फ़िर से बचपन लौटा लाए।

मोहक स्वर्गाश्रम की छटाएं

कल-कल करती बहती गंगा,
सुन्दर  हिमगिरि की शाखाएँ, 

                        रजत सुमन लहरें बिखराएँ, 
                        तरल  तरंगित  नाद  सुनाएँ,  

निर्मल  गंगा की  ये   लहरें,
अमृत मय, पय पान कराएँ, 
                      
                       सुन्दर पक्षी कलरव करते, 
                       मन को मोहें  धवल धाराएँ,    

श्यामल बादल शिखर चूमते,
हरा  आँचल वसुधा  लहराएँ, 
                  
                  तपोभूमि ऋषि-मुनियों की,
                  गूँजें  यहाँ  पर वेद- ऋचाएँ,    

 नीलकंठ   महादेव  बिराजे,
 मोहक स्वर्गाश्रम की छटाएँ।                    


मैं कविता ही लिखता रहूँ

तन्हाई के दिनों में
हमसफ़र का काम
कविता करती है। 

ठंडी रातों में
गर्माहट का काम
कविता करती है। 

दुःखों के सागर में
पतवार का काम
कविता करती है। 

किसी की यादों को
गुदगुदाने का काम
कविता करती है। 

डगमगाते कदमों को
सहारा  देने का काम
कविता करती है। 

बहते आँसुओं को
पोंछने का काम
कविता करती है। 

निराशा की धुंध में
आशा का संचार
कविता करती है। 

सोते हुए को
जगाने का काम
कविता करती है। 

मैं चाहता हूँ
जीवन के अवसान तक
कविता लिखता रहूँ।

एक प्रयास तो करें

पहले घर छोटे थे
मकान कच्चे थे
कमाई सीमित थी
मगर दिल बड़े होते थे।

एक सब्जी से रोटी
खा लिया करते थे
कभी प्याज -चटनी से भी
काम चला लिया करते थे।

एक भाई कमा कर
चार भाई का घर भी 
चला लिया करता था।

सभी मस्त रहते थे
घर में हँसी - ख़ुशी 
और कहकहों की
फुलझड़ियाँ फूटती थी।

डिप्रेशन, उदासी और
ब्लडप्रेशर का कोई
नाम तक नहीं जानता था।

जीवन के मूल्य ऊँचे होते थे
दया और शान्ति का जीवन था
संतोष में ही सुख था।

आज पैसे की कमी नहीं
सुख-साधनों का आभाव नहीं
फिर भी सुख की नींद नहीं।

आज बेटा बाप से नहीं बोलता
भाई - भाई  से लड़ता
पति से पत्नी तलाक माँगती 
तनाव भरा जीवन जी रहें  हैं हम।

क्या हम इस दुःख की
नब्ज को पहचान कर
एक सुखी जीवन जीने का
प्रयास नहीं कर सकते ?


फिर क्यों अपनापन बांटा

बचपन कितना सुन्दर था, ढेरों प्यार जताते थे, 
बड़े हुए सब भूल गए, आपस में मन को बाँटा।

 अहम का औजार बनाया, भाई ने भाई को बाँटा, 
  नहीं किसी ने दर्द को बांटा, केवल सन्नाटा बाँटा।

हाथों से खाना सिखलाया,  बाँहों में झूला  झुलवाया,
उसी बाप की नजरों के संग, घर के चूल्हे को बाँटा

आँखें फेरी, लहजा बदला, घर की इज्जत को बाँटा, 
चौखट भी उदास हो गई, घर के आँगन  को बाँटा।

प्यार-मुहब्बत भाई जैसा, और कहाँ तुम पाओगे,
जन्नत है भाई का रिश्ता, उसको भी तुमने  बाँटा।  

                                                    कहना सुनना गृहस्थी में, चलता ही तो रहता है,                                                       छोटी -छोटी बातों पर, तुमने घर को क्यों बाँटा। 

धन-दौलत, जमीं-जायदाद, सभी छोड़ कर जाओगे,
साथ नहीं जाएगी कौड़ी, फिर क्यों अपनापन बाँटा


यही है संसार

पिता ने पौध को 
माली की तरह पाल पोस 
बड़ा किया था

कल्पना की थी
ठंडी छाँव और मीठे
फलों की

पेड़ों की
धमनियों में डाला था
अपना रक्त और जड़ों में
सींचा था अपना पसीना

लेकिन पेड़ों के
बड़े होते ही उनकी साँसों में
बहने लगी जमाने की हवा

अब पेड़ों की छाँव
वहाँ नहीं पड़ती जहाँ
पिता बैठता है 

मीठे फलों की जगह
पिता को चखना पड़ता है
कड़वे फलों का स्वाद

जब तब
लगती है मन को ठेस
सिमटते रहते हैं पिता

लाचार
हो जाता है बुढ़ापा
जवान बेटों के आगे

मन में दुःख होता है
पर कह नहीं सकते
किसी को

दीवार पर लगी पत्नी की 
तस्वीर देख कहते हैं  
पगली ! यही है संसार

उभर आता है
एक तारा आकाश में
सिहर उठता है बेबसी पर।



ठगिनी बयार

 बसंत आया मन हर्षाया,
        प्रकृति करे सोलह सिंगार,
               धानी चुनरिया ओढ़े धरती,
                         मद्धम-मद्धम बहे बयार।

बागों में अमुआ बौराया,
         झूम उठी सरसों कचनार,
                महुआ का भी तन गदराया,
                        लाया बसंत अनन्त बहार।

पायल थिरके चूनर लहरे,
        मचली फागुन की फगुआर,
                 कुहू कुहू बोले कोयलियाँ, 
                       बागों में छाई बसंत बहार।

तन गदराया मन अकुलाया,
         प्रकृति करे प्रणय मनुहार,
                  मधुकर चूमें कलियों को,
                           ठगिनी बहने लगी बयार।


मेरी यादों में गाँव

                                                                            गाँव में
घास-फूस वाली झोंपड़ियाँ
अब नजर नहीं आती। 

पनघट पर
बनी-ठनी पनिहारिनें 
अब नजर नहीं आती। 

सावन में 
 झूलों पर झूलती गौरियाँ  
अब नजर नहीं आती । 

चौपाल पर
हुक्के वाली बैठकें
अब नजर नहीं आती। 

 आँगन में
खन-खनाती चूड़ियाँ
अब नजर नहीं आती। 

बाखल में
पायल की छमछम 
अब सुनाई नहीं देती। 

साँझ में 
गायों का रम्भाना 
अब नजर नहीं आता। 

खेतों में
अलगोजे पर मूमल 
अब सुनाई नहीं देता। 









सुनहरी यादें

याद आती बचपन की बातें, 
प्यार भरी वो सुनहरी  यादें। 

बारिश के पानी में उछलना,
मेंढक को देख चीखें लगाना,   
कटी पतंगों के पीछे दौड़ना, 
दीपक की रौशनी में पढ़ना। 

थैला  लेकर स्कूल में  जाना, 
थूक  से  स्लेट साफ़  करना, 
नई किताबों पर गत्ते चढ़ाना,
पहाड़े बोल कर याद करना। 

दोस्तों के साथ कंचा खेलना, 
फूल पर से तितली पकड़ना,
अपने भाई को घोड़ा बनाना, 
दादी से रोज कहानी सुनना। 

होली में सबको रंग लगाना, 
सावन में  खूब  झूले झूलना, 
तीज पर मेला  देखने जाना, 
दिवाली पर पटाखें छोड़ना। 

याद आती बचपन की बातें,
प्यार भरी वो सुनहरी  यादें। 



                                                                       








  

गाँव का जीवन

                                                                    देश के महानगरों में 
रह कर भी मुझे 
अपने गाँव की 
याद आती है। 

आलीशान मकान में 
रह कर भी मुझे 
गाँव वाले घर की 
याद आती है। 

हवाई जहाजों में
सफर करके भी मुझे 
गांव वाली बैलगाड़ी की 
  याद आती है।  

पाँच सितारा होटलों में 
ठहर कर भी मुझे 
खेत वाले झोंपड़े की
याद आती है। 

स्वादिष्ट खाना 
खाकर भी मुझे 
माँ के हाथ की रोटी की 
याद आती है। 


                                                                         ऐशो आराम की  
                                                                   जिंदगी जी कर भी मुझे     

गाँव के जीवन की 
याद आती है।
ok 


दो दिन का बस मेला है

                                                                 शिव शंभू आओ धरती पर
हे जग के विषपायी,
एक वायरस ने दुनिया को
कर दिया धराशायी। 

सभी घरों में कैद हो गए
कैसी यह लाचारी, 
कैसा महासंक्रमण आया 
कैसी यह महामारी। 

रोज-रोज गिरती है लाशें
कौन करे अब गिनती,
यमराज भी थक गए हैं 
नहीं सुनते अब विनती। 

एक मास्क में सिमट गई
साँसें सारे जीवन की,
नहीं मिली दवा आज तक
    इस व्याधि के उपचार की। 

थम रहा जीवन पृथ्वी पर
चारों  तरफ  निराशा  है, 
जीवन  तो  लगता है जैसे
दो दिन का बस मेला है।

ok 

अपनी विरासत

                                                                         गाँवों में लोग 
आज भी देते हैं सूर्य को अर्ध्य 
निवेदित करते हैं तुलसी को जल

आज भी वहाँ 
पड़ते हैं सावन के झूले 
गूँजते हैं कजरी के बोल

औरतें रखती हैं  
चौथ का व्रत और करती हैं 
निर्जला एकादशी 

भोरा न भोर 
करती हैं  ठन्डे पानी से स्नान 
रखती व्रत कार्तिक मासी

दिवाली में 
गोबर से लिपती हैं घर
 माँडती है रंगोली

होली में 
बच्चे-बुड्ढे हो जाते हैं एक 
लगाते रंग, खेलते हैं होली

गाँव आज भी 
पुरखों की बनाई व्यवस्था 
पर गर्व करते हैं 

अपनी विरासत को 
पीढ़ी दर पीढ़ी संजोए 
रखते हैं। 




मेरी कलम भी थर्राई है

कोरोना वायरस
दुनियाँ में कोहराम मचा रहा है,
विज्ञान वैक्सीन नहीं खोज पा रहा है,
चीन की गलती की सजा संसार भुगत रहा है,
मानवता आज सहम कर, मज़बूरी पर घबराई है।

पुरे विश्व में
महासंक्रमण फ़ैल रहा है,
जैविक युद्ध का खतरा बढ़ रहा है,
चारों तरफ तबाही का मंजर दिख रहा है,
सारी दुनियाँ घरों में बंद, विकट स्थिति आई है।

हर इंसान बेबस
और लाचार हो रहा है,
कोविद -19 तहलका मचा रहा है,
मानव का गुमान धराशाई हो रहा है,
प्रकृति के ऊपर कोई नहीं, यह भी सच्चाई है।

कोविद - 19 ने 
दुनियाँ का चैन छीन लिया है,
हर देश में आज कहर बरपा रहा है, 
देश-विदेश में लाशों का अम्बार लग रहा है,
ऐसा भयावह नज़ारा देख, मेरी कलम भी थर्राई है।