Saturday 6 March 2021

अपनी बात

मनुष्य संवेदनशील एवं चेतना सम्पन्न प्राणी है। इसका मन प्रकृति में प्रतिपल होने वाले सौम्य, मनोरम एवं विकराल परिवर्तनों से भी भाव ग्रहण करता है और अपने आस-पास होने वाले दु:ख-सुख, आशा-निराशा, प्रेम-घृणा, दया-क्रोध से भी चलायमान होता रहता है। मनुष्य की इसी प्रवृत्ति की प्रेरणा से ज्ञान एवं आनन्द के उस भण्डार का सृजन, संचय एवं संवर्द्धन होता रहा है जिसे साहित्य कहते हैं। उसी साहित्य का एक अंग कविता है। समें छन्द व अलंकार पर बल नहीं दिया है, केवल एक बात पर बल दिया गया है, वह अभिव्यक्ति की हृदयस्पर्शी प्रभावोत्पादकता, जिससे यथाभाव की गूढ़तम अनुभूति हो सके। 

जीवन में मिलना - बिछुड़ना तो चलता ही रहता है, लेकिन मौत के बाद किसी से फिर मिलने की उम्मीद नहीं रहती।मौत पर किसी का बस नहीं होता। जब भी कोई अपने साथी को खोता है, तो उसका जीवन रंगहीन हो जाता है। वह उस पल को कोसता है, जब उसने अपने साथी को खोया। वह   छटपटाता है कि काश एक मौका फिर मिल जाय और वो उसे वापिस ले आये। लेकिन मौत वो अंत है, जिसकी शुरुआत नहीं होती। जाने वाला चला जाता है, लेकिन जीवनपर्यन्त दुःख अपनों को दे जाता है। समय घावों को भर देता है, लेकिन दिल में बैठी वो टीस कभी नहीं भरती।  

मेरी सहधर्मिणी स्व.सुशीला कांकाणी के वियोग से, ह्रदय में उपजी पीड़ा से, मैंने  ''कुछ अनकही..... '' काव्य संग्रह को जन्म दिया था। इस संग्रह में कोई चमत्कारिक काव्य शिल्प, कल्पना की ऊँची उड़ान या जटिल शब्दावली न हो कर सहज, प्रवाहमयी और संवेदनाओं को गहराई तक स्पर्श करने वाली कविताएं मैंने लिखी थी। इस संग्रह को आप सभी का भरपूर प्यार व आशीर्वाद मिला तदर्थ मैं आप सभी का हृदय से आभार प्रकट करता हूँ। 

इस पुस्तक को पढ़ कर अनेक पाठक/ पाठिकाओं की प्रतिक्रियाएं मुझे मिली थी। मैं सभी को यहाँ उदघृत तो नहीं कर पा रहा हूँ, केवल एक प्रतिक्रिया मैं सन्दर्भ के रूप में दे रहा हूँ, -----"अंतिम पृष्ठ तक पहुँचते - पहुँचते कितनी ही बार अक्षर धुँधले से हुए। एक-एक गिलास पानी पीकर, हर कविता में रचे इस दर्द को बर्दास्त करने की कोशिश करने के साथ ही, मैं पुस्तक को पूरी पढ़ सकी।" पाठकों के इस तरह से लिखे भावों को पढ़ कर, मुझे लगा कि मेरा लिखना सार्थक रहा। कुछ कविताएँ पिछले संग्रह में संकलित होने से रह गई थी, वो कविताएँ मैं इस संग्रह में दे रहा हूँ। आशा करता हूँ, पाठकवृन्द पसंद करेंगे। 

मेरे बचपन का गाँव आज भी मेरी यादों में बसा है। खेतों की सुनहरे रंग की बालू, जहाँ पर लहराती है बाजरी और मोठ की फसलें। खेजड़ी और रोहिड़े के सुन्दर वृक्ष, जिन पर चहकती हैं रंग-बिरंगी चिड़ियाँ। मैं जीता रहा हूँ उसी स्वर्ग में। वह आज भी मेरी सबसे घनिष्ठ प्रिय जगह है। ''गांव शहर चला गया है", "अपनी विरासत", "याद आता मुझको मेरा गाँव", "गाँव का जीवन", "मेरी यादों में गाँव" आदि कविताएँ इसी सन्दर्भ में लिखी हुई है। 

शहरों में भीड़ है, लेकिन हर कोई वहाँ अकेला है। किसी के पास समय नहीं है। गाँव में भीड़ नहीं है, लेकिन सबके पास एक-दूजे की परवाह है, फिक्र है और सामाजिकता की भावना है। वहाँ शहरों की तंग गलियाँ नहीं, खेतों की मेड़ों पर प्रकृति का सहवास है। गाँव हमें भूखे नहीं मरने देगा, इसी विश्वास के साथ, कोरोना महामारी के दौरान हजारों कि० मी०  पैदल यात्रा कर प्रवासी मजदूर अपने गाँव लौटे थे।मेरी कुछ कविताएँ जैसे "प्रवासी मजदूरों का पलायन", "मेरी कलम भी थर्राई है" आदि कविताएँ आपको इसी विषय पर पढ़ने को मिलेगी।   

मेरा प्रकृति के प्रति प्रेम सदा से ही रहा है। पहाड़ों में घूमना, नदियों और झरनों के किनारे घंटों बैठना, मेरा शौक रहा है। नदियों में कल-कल की ध्वनि से बहता जल, प्रकृति की सुरभ्य एवं मनोरम वादियों की गोद, मन्द-मन्द गति से चलने वाली समीर, मुझे सदा आकर्षित करती हैं।  "कलात्मक सृजनता" को मैंने कानाताल ( उत्तराखण्ड  ) प्रवास के दौरान लिखा था। गंगा की लहरों पर संध्या की सुनहरी आभा का धीरे-धीरे नीलिमा में परिवर्तित होना, सूर्य के बिम्ब का डूबना, यह सब प्राकृतिक दृश्य देखना किस को अच्छा नहीं लगता ? मेरी कविता "मोहक स्वर्गाश्रम की छटाएँ "-  मैंने स्वर्गाश्रम के गंगा घाट पर  बैठ कर लिखी थी। 

मजदुर हमेशा से ही अभावों की जिंदगी से गुजरता आया है। कभी- कभी तो उसे पेट भर खाना भी नसीब नहीं होता। आजादी के इतने साल गुजर जाने के बाद भी, इस परिस्थिति में किसी  प्रकार का बदलाव नहीं आया है। उसके जीवन में आज भी सुख नाम की कोई चीज नहीं है। "सुख से भर पेट रोटी", "महानगरीय जीवन", "काश कोई लौट आये अपना" आदि कविताओं में मैंने अपने मन के दर्द को प्रकट किया है।  मैंने अलग- अलग वक्त में अलग-अलग विषयों पर कविताएँ लिखी है। "आया देख बसंत को", "बसंत आ रहा", "ठगनी बहने लगी बयार", आदि कवितायें बसंत ऋतु पर लिखी हुई हैं।  इसी प्रकार से कुछ कविताएँ बचपन पर लिखी हुई हैं, जैसे "कागज़ की कश्ती", "बच्चे खो रहे हैं अपना बचपन" आदिआदि।  

मेरा यह कविता संग्रह का चौथा पड़ाव है। रस, अलंकार, छंद आदि का सम्यक ज्ञान न होने के कारण, इनमें अनेक त्रुटियाँ रहना सम्भव है। मेरा यह काव्य ग्रंथ आपके मर्म-स्थल को कितना छू पायेगा, यह तो आप ही बताएँगे। पहले तीनो काव्य संग्रहों - "कुमकुम के छींटे", "एक नया सफर" और "कुछ अनकही ..... " को आप सभी का भरपूर प्यार व आशीर्वाद मिला। मैं आशा करता हूँ कि मेरे इस संग्रह को भी आपका स्नेह और आशीर्वाद पूर्व से अधिक ही प्राप्त होगा। 

इस अवसर पर मैं स्मरण करना चाहता हूँ अपनी स्नेहमयी माँ स्व० श्रीमती भंवरी देवी कांकाणी को, जिनका जीवन, संघर्ष का पर्याय रहा, जो मेरे संघर्ष की ऊर्जाश्रोत बनी एवं स्वo पिताजी श्री पुसराज जी कांकाणी को, जो आज इस संसार में न होकर भी, मेरे सृजन और मेरी यादों में सदा मेरे साथ रहे हैं। 

डॉ० मदनलाल वर्मा "क्रान्त " जी ने कविता के माध्यम से शुभानुशंसा लिख कर मेरा जो मान बढ़ाया है उसके लिए मैं उनका जितना भी आभार प्रकट करूँ वो कम ही होगा। कईं दिनों से स्लिप डिस्क की पीड़ा से परेशान रह कर भी उन्होंने सभी कविताओं को पढ़ कर उनमें रही व्याकरण की अशुद्धियों को ठीक किया। बड़े मनोयोग से पुस्तक को सजाया-सँवारा और समीक्षा गीत लिख कर मेरे इस काव्य-संकलन को गौरवान्वित किया। 

इस संग्रह की सारगर्भित, विद्वतापूर्ण व विस्तृत भूमिका हिंदी -साहित्य आकाश के उज्जवल नक्षत्र, ख्यातिलब्ध व समादृत कविता, लेख, ब्लॉग, निबन्ध व शोध लेखक डॉ 'श्री प्रेमशंकर त्रिपाठी ने लिख कर, पुस्तक को व मुझे जो गौरव प्रदान किया है, उसके लिए मैं उनका अतिशय आभारी हूँ।
 
मैं अपने परिवार के सभी सदस्यों का आभार व्यक्त करना चाहूँगा, जिन्होंने इसके लेखन का वातावरण मुझे दिया। अपने सभी सम्बन्धियों, मित्रों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना चाहूँगा, जो दूर रह कर भी मुझे लिखने के लिए प्रेरित करते रहें । मैं विजय पुस्तक भण्डार के श्री विजय प्रकाश जी अग्रवाल एवं राजा राय का हार्दिक कृतज्ञ हूँ, जिनकी इस पुस्तक को प्रकाशित करने में अहम् भूमिका रही। पुस्तक के कवर की रचना में श्री मनीष काँकाणी एवं श्रीमती पृथा आईच का विशेष सहयोग रहा।  

जल्द ही फिर मिलने की कामना के साथ --

                                                                                                                 भागीरथ कांकाणी 


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