बस्ते के बोझ तले, बचपन बीत गया,
मस्ती भरी सोणी, नादाँ उम्र चली गई।
स्वर्ण -मृग के पीछे, मैं दौड़ता ही रह गया,
जीवन की दिवानी, मस्त जवानी चली गई।
बुढ़ापा क्या आया, सब कुछ ही लुट गया,
दरिया सरीखी दिल की, रवानी चली गई।
चूड़ियाँ-बिन्दी का, रिवाज़ ही चला गया,
औरतों के सुहाग की, निशानी चली गई।
माँ -बाप के बुढ़ापे की, उम्मीद चली गई।
गाँवों का मिजाज, शहरो में बदल गया,
मेघ मल्हार,कजली की, तानें चली गई।
गाँव में पड़ा मकान, मेरे हाथों बिक गया,
गाँव की जमीं से, घर की निशानी चली गई।
OK
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