तुमसे बिछुड़ कर
मैंने पहली बार अनुभव किया कि
बिना जान भी जिया जा सकता है
और मैं तन्हाई में जिन्दा भी हूँ।
मेरे जीवन में
कोई अस्तित्व का पल नहीं
जो तुमने छुआ न हो
कोई साँस नहीं जिसमें
तुम्हारा अहसास न हो
कोई याद नहीं जिस पर
तुम्हारा हस्ताक्षर न हो।
असीम आनन्द था तुम्हारे सानिध्य में
जहाँ भी जाता सदा तुम्हारी
खुशबू मेरे साथ रहती
अब मेरा कहने को कुछ नहीं बचा है ?
मेरी यादों का घूँघट भी
अब धुँधला होता जा रहा है
तुम होती तो क्या होता पता नहीं
शायद खो जाता बाँहों में
निहारता रहता चाँद को।
अब तो मैं दीवार पर टँगा हुआ
एक चित्र जैसा हूँ।
ok
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