यह दिन तो सकुशल गुजर गया
यह रात बस अब ढलने को है,
ये जीवन-सफर तो रीत गया
अब नया सफ़र करने को है।
सारा कुछ तो कर लिया मगर
फिर भी क्यों प्यास बुझी नहीं,
यह आदिकाल से बनी रही
आजीवन तो कभी मिटी नहीं।
इच्छा तो बढ़ती जाती है
वो कभी नहीं घटती प्यारे!
पर ये साँसें तो सीमित हैं
वे कभी नहीं बढ़तीं प्यारे!
है रूप-चाँदनी दो दिन की
क्षणभंगुर है यह जीवन भी,
जो आया है वह जायेगा
कोई नहीं है अनश्वर भी।
अब आवाहित को आना है
इस पंछी को उड़ जाना है,
और कंचन जैसी काया को
कुछ क्षण में ही जल जाना है।
ok
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