कितने बरस बीत गए
कितने सावन निकल गए
रीत रहा है तन-मन
याद आ रहे हैं वो दिन
जब साथ थी तुम।
गाँव का घर
माटी पुती दीवारें
गोबर लिपे आँगन
चूल्हे से उठता धुँआ
रोटी की महक और
घूँघट में झाँकती तुम।
जाड़ों की रातें
रजाई में जग कर
धीरे-धीरे करते बातें
दूर जा कर लिखता खत
आँखें भिगोती तुम।
हिमालय की वादियाँ
गीता भवन का घाट
गंगा की ठंडी लहरें
शाम ढले बैठते नौका में
पानी उछालती तुम।
यादों में खोया
किस घर लौटूँ
कहो ना ! बिन तुम। ......।
ok
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